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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
पर कृष्ण का दाह-संस्कार किया, जरत्कुमार को राज्य दिया और नेमीश्वर भगवान की साक्षी से वहीं उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली।।
मुनि बलदेव अत्यन्त रूपवान थे। वे जब नगर में चर्या के लिये जाते थे, तो उन्हें देखकर कामिनियाँ कामबिह्वल हो जाती थीं। यह देखकर उन्होंने नियम लिया कि यदि मुझे वन में ही साहार मिलेग', तो लेगे, अन्यथा नहीं। वे कठोर तप द्वारा शरीर को कुश करने लगे, किन्तु उससे प्रात्मा की निर्मलता बढ़ती गई। के वन में ही विहार करते थे। यह बात राजारों के भी काम में पड़ी। व अपने पुराने बर-बिरोष को स्मरण कर शस्त्रसज्जित होकर उसी बन में आगये। सिद्धार्थ देव ने यह देखकर वन में सिंह ही सिंह पैदा कर दिये। जब उन राजानों ने मुनि बलदेव के चरणों में अनेक सिह देखे तो उनकी सामथ्य देखकर शान्त हो गये। तभी से जगत में बलदेव मनिराज नरसिंह नाम से विख्यात हो गये।
उन्होंने सौ वर्ष तक घोर तप किया। अन्त में समाधि धारण करके वे ब्रह्मलोक में इन्द्र बने । अवधिज्ञान से उसने पूर्व जन्म के बन्धु-बान्धवों को जान लिया। वह अपने पूर्वजन्म के प्राणोपम भाई कृष्ण के जीव के पास गया। उसने.कृष्ण को अपने साथ ले जाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु सफल नहीं हो सका । तब कृष्ण के जीव ने उसे समझाया-देव! सब जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार शुभ-अशुभ गति और सुख-दुःख पाते हैं। कोई किसी को सुख देने मोर दुःख हरने में समथ नहीं है। हम दोनों अपनी वर्तमान प्रायु पूर्ण करके मनुष्य पर्याय प्राप्त करेंगे और वहाँ तप करकं मोक्ष प्राप्त करेंगे।
ब्रह्मन्द्र वहाँ से वापिस भा गया और कृष्ण के जीव के अनुरोध के अनुसार उसने इस पृथ्वी पर कृष्ण के अनेक मन्दिर बना दिये, कृष्णा की मूर्तियाँ, शंख, चक्र और गदा युक्त बनाई और कृष्ण को भगवान का अवतार बनाकर लोगों को भ्रमित कर दिया। उसने बलदेव को शेषनाग का अवतार बताकर एक विमान में कृष्ण और बलदेव का रूप बनाकर लोगों को दर्शन दिये। इस प्रकार संसार में कृष्ण को भगवान का अवतार मानने की मान्यता और कृष्ण-पूजा प्रचलित हुई। उनके नानाविध मोहन रूपों की कल्पना की गई और उन्हें सोलह कला का अवतारी पूर्ण पुरुष मान लिया गया।
पाण्डवों ने जरत्कुमार का राज्याभिषेक किया, उसका विवाह भनेक सुलक्षणा कन्यानों के साथ कर दिया। इस काम से निश्चिन्त होकर वे पल्लव देश में गये, जहाँ भगवान नेमिनाथ विराजमान थे। उन्होंने भगवान को
नमस्कार किया और प्रदक्षिणा देकर यथोचित स्थान पर बैठकर भगवान का प्रमत उपदेश . पाण्डवों को सुना। सुनकर उन्होंने भगवान के चरणों में मुनिदीक्षा लेली। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा प्रादि निर्वाण-प्राप्ति रानियो राजीमती प्रायिका के समीप दीक्षित हो गई।
एक बार पाँचों पाण्डव मुनि श_जय पर्वत पर प्रतिमायोग से विराजमान थे। तभी दुर्योधन का भानजा धमता-फिरता उधर ही मा निकला। उसने पाण्डवों को देखा। उसके मन में यह सोचकर अत्यन्त क्षोभ हुमा कि मेरे मातुल वंश का उच्छेद करने वाले ये ही दुष्ट पाण्डव हैं। मुझे अपने मातुल वंश के इन शत्रों से प्रतिशोध लेने का आज यह स्वर्ण सुयोग प्राप्त हुआ है। यह विचारकर वह गांव में जाकर लोहे के आभूषण ले पाया और उन्हें प्रज्वलित अग्नि में तपाकर पांचों पाण्डवों को पहना दिये। उन तप्त लोहाभरणों से मुनियों के शरीर तिल-तिलकर जलने लगे। किन्तु धीर वीर और आत्मा के शुद्ध स्वभाव को जानने वाले वे मुनिराज आत्मस्वभाव में लीन हो गये। शरीर जलता रहा और उनके वीतराग परिणामों से कर्म जलते रहे । उनका ध्यान प्रात्मा में था, शरीर की पोर उनका उपयोग नहीं था, प्रतः शरीर के दाह का प्रनुभव भी उन्हें नहीं हमा। युधिष्ठिर, भीग और अर्जन मुनिराज तो शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का क्षय कर सिद्ध परमात्मा बन गये और नकुल, सहदेव मुनिराज सर्वार्थसिद्धि में महमिन्द्र हुए।
भगवान नेमिनाथ उपदेश करते हुए उत्तरापथ से सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत पर पहुंचे। वहाँ भाकर भगवान ने समवसरण में विराजमान होकर उपदेश दिया। फिर समवसरण विजित हो गया। भगवान एक माह तक योग निरोष कर ध्यानलीन हो गये। उन्होंने अघातिया कर्मों का नाश करके प्राषाढ़ कृष्णा पष्टमी के दिन