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भगवान नेमिनाथ
भगवान बोले – देवी ! ये छहों मुनि वास्तव में तुम्हारे पुत्र हैं। उन्हें कृष्ण जन्म से पहले तीन युगल में तुमने ही जन्म दिया था। देव ने कंस से इनको रक्षा की। उसने इनका जन्म होते ही भद्दिलपुर के श्रेष्ठी सुदृष्टि और उनकी मलका सेठानी के यहाँ पहुँचा दिया तथा उनके सद्योजात मृत पुत्र युगलों को तुम्हारे पास लाकर सुला दिया। उन छहों पुत्रों का लालन-पालन उन सेठ-सेठानी के घर पर हुआ। वे ही छहों भ्राता धर्म श्रवण कर मेरे पास मुनि बन गये। वे कमों का क्षय करके इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करेंगे । पुत्र होने के कारण ही तुम्हारे मन में इनके प्रति वात्सल्य जागृत हुआ था ।
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देवकी यह सुनकर अत्यन्त सन्तुष्ट हुई। उन्होंने तथा श्रीकृष्ण यादि ने उन मुनियों को नमस्कार किया ।
भगवान का धर्म परिकर - भगवान के समवसरण में वरदत्त श्रादि ११ गणधर ४०० पूर्वधारी, ११८०० शिक्षक, १५०० अवधिज्ञानी, १५०० केवलज्ञानी, ६०० विपुलमति मतः पर्ययज्ञानी, ८०० वादो और ११०० विक्रिया ऋद्धिधारी मुनि थे । राजीमती श्रादि ४०००० अजिकायें थीं । १६९००० श्रावक मौर ३३६००० भाविकायें थीं ।
कुमार मुनि पर उपसर्ग - श्रीकृष्ण के अनुज का नाम गजकुमार था। वह अत्यन्त तेजस्वी, सुदर्शन और सौम्य था । श्रीकृष्ण उससे अत्यन्त स्नेह करते थे। कुमार का विवाह श्रनेक राजकुमारियों के साथ कर दिया गया । श्रीकृष्ण ने उसके लिये सोनशर्मा नागकका सोभा का वरण कर लिया। यह विवाह होने से पूर्व भगवान नेमिनाथ बिहार करते हुए द्वारकापुरी पधारे। भगवान गिरनार पर्वत पर विराजमान थे । यादव लोग भगवान के दर्शनों के लिये गये। यादवों को गिरनार पर्वत पर जाते देखकर गजकुमार भी समवसरण में जा पहुँचा । वह भगवान को नमस्कार करके मनुष्यों के कोठे में बैठ गया। भगवान का उपदेश सुनकर उसे भोगों से विराग हो गया । वह माता-पिता, बन्धुबान्धवों से अनुमति लेकर भगवान के चरणों में मुनि दीक्षा लेकर घोर तप करने लगा ।
एक दिन मुनि गजकुमार एकान्त में रात्रि में प्रतिमा योग से विराजमान थे, तभी सोमशर्मा उधर आ निकला। वह मुनि गजकुमार को देखकर अपनी पुत्री का त्याग करने के कारण क्रोध से विवेकहीन हो गया । उसने जलती हुई अंगीठी मुनिराज के सिर पर रखदी और वह क्रूर पिशाच के समान मुनिराज को जलते हुए देखने लगा 1 ज्यों-ज्यों मुनिराज का शरीर जलने लगा, वह दुष्ट उतना ही प्रसन्न होने लगा। इस रोमहर्षक प्रतिशोध से निकाचित कर्मों द्वारा उसकी श्रात्मा तमसावृत्त हो गई। उधर मुनिराज ने साम्यभाव से इस दारुण यंत्रणा को सहकर शुक्ल ध्यान द्वारा कर्मों का विनाश कर दिया और वे अन्तकृत केवली होकर सिद्ध परमात्मा बन गये ।
गजकुमार मुनि को सिद्ध पद की प्राप्ति होने पर देवों ने थाकर उनके शरीर की पूजा की। उनके मरण से दुखी होकर वसुदेव को छोड़कर समुद्रविजय आदि भाई तथा अनेक यादव संसार की असारता पर विचार करके दीक्षित हो गये । देवकी और रोहिणी को छोड़कर शेष रानियों और श्रीकृष्ण की पुत्रियों ने भी दीक्षा ले ली। भगवान की भविष्यवाणी- भगवान वहां से बिहार करके उत्तर दिशा, मध्यदेश और पूर्व दिशा के देशों में धर्मोद्यत करते रहे । विहार करते हुए एक बार वे पुनः द्वारका पधारे और रंबतक पर्वत पर विराजमान हो गये। उनके पधारने की सूचना पाकर वसुदेव, बलदेव और श्रीकृष्ण परिजनों और पुरजनों के साथ भगवान के दर्शनों के लिये आये । भगवान को नमस्कार करके सब यथास्थान बैठ गये और भगवान का कल्याणकारी उपदेश श्रवण करने लगे । धर्मकथा के पश्चात् बलदेव ने हाथ जोड़कर भगवान से पूछा-भगवन् ! इस द्वारकापुरी की रचना कुबेर ने की है। इसका अन्त कितने समय में होगा ? प्रभो ! कृष्ण की मृत्यु किस निमित्त से होगी ? देवाधिदेव ! मेरा चित्त कृष्ण के स्नेह पाश से बंधा हुआ है, क्या ऐसी स्थिति में मैं कभी संयम ग्रहण कर सकूंगा ? प्रभो ! मेरी जिज्ञासा का समाधान करने की कृपा करें ।
त्रिकालदर्शी भगवान कहने लगे हे बलराम ! तुमने भविष्य जानने की इच्छा प्रगट की है, वह सुनो। द्वारकापुरी याज से बारहवें वर्ष में मद्यप यादवों की उद्दण्डता के कारण द्वैपायन मुर्ति के द्वारा क्रोध करने पर भस्म होगी । अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बी के वन में शयन करेंगे। उस समय जरत्कुमार के निमित्त से