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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
प्रयत्न किया, न जिसने अपने भावी पति के विरुद्ध कोई प्रभाव अभियोग ही उपस्थित किया, बल्कि केवल कंकण की लाज को ही सब कुछ मानकर उसी ठुकराने वाले निष्ठुर पति का ही अनुगमन किया, वह नारी नारीत्व का महानतम शुगार है। राजुल ! तुमने अपनी कामनाओं का होम करके और आत्माहुति देकर जो ज्योति जलाई, वह युग-युगों तक दिग्भ्रान्त नारी जाति का पथ आलोकित करती रहेगी। देवी ! तुमने अपने जीवन को धन्य किया, समन नारी जाति को धन्य किया और मानव की महानता को धन्य किया। तुम अपने इस महान तप और त्याम के कारण जगन्माता के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित होकर अखिल मानव जाति की श्रद्धास्पद बन गई हो । तुम्हें सहस्र प्रणाम!
मुनिराज नेमिनाथ अन्तर वाह्य परिग्रह का त्याग करके घोर तप करने लगे । वे प्रायः प्रात्म ध्यान में लीन रहते थे। उन्हें एकान्त, प्रासुक तथा क्षुद्र जीवों के उपद्रव से रहित क्षेत्र, बज्रवृषभनाराच संहनन रूप द्रव्य, उष्णता
__ आदि बाधा से रहित काल पौर निर्मल अभिप्राय रूप श्रेष्ठ भाव यह क्षेत्रादि चतुष्टय रूप भगवान नेमिनाय का सामग्री उपलब्ध थी। अतः वे प्रशस्त ध्यान में लीन रहते थे । ध्यान के समय उनके नेत्र न तो केवलज्ञान कल्याणक अत्यन्त खुले रहते थे, न बन्द हो रहते थे। नोचे के दांतों के अग्रभाग पर उनके ऊपर के दाँत
स्थित रहते थे। उनकी इन्द्रियों का समस्त व्यापार निवत्त हो चुका था। उनके श्वासोच्छवास का सञ्चार शनैः शनैः होता था। वे अपनी मनोवृत्ति को नाभि के पर मस्तक पर, हृदय में अथवा ललाट में स्थिर कर प्रात्मा को एन र करके प्रगत रन । उनकी खलायें टूटती गई और केवल छप्पन दिन को कठोर साधना के पश्चात् उन्हें पाश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, मनन्त सुख और अनन्त कोर्य रूप अनन्त चतुष्टय प्राप्त हो गया । वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन गये। इन्द्रों के आसन और मुकुट कम्पित होने लगे । चारों जाति के देवों के प्रावासों में घण्टों के शब्द, सिंहनाद, दुन्दुभि के शब्द और शंखों के शब्द होने लगे। देवों और इन्द्रों ने अवधिज्ञान से जान लिया कि भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होगया है, वे सब गिरनार पर्वत पर भगवान का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाने पाए । कुबेर ने समवसरण की रचना की। देवों और इन्द्रों ने भगवान का ज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया और भगवान की पूजा की, भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी। इस प्रकार भगवान ने धर्म चक्र प्रवर्तन किया।
भगवान का धर्म विहार-भगवान नेमिनाथ ने विभिन्न देशों में धर्म विहार किया। वे सौराष्ट्र, लाट, मत्स्य, शूरसेन, पदच्चर, कुरुजांगल, पाञ्चाल, कुशाग्र, मगध, अञ्जन, अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, प्रादि देशों में विहार करते हए गए। उनके उपदेश सुनकर सभी वर्गों के लोग जनधर्म में स्थित हुए।
तदनन्तर वे बिहार करते हुए मलय नामक देश में पाये । वे भद्रिलपुर नगर के सहस्राम्र वन में ठहरे । उस नगर का राजा पौण्ड नगरवासियों के साथ भगवान के दर्शनों के लिए आया । महारानी देवको के छहों पुत्र, जिनका लालन-पालन सुदृष्टि सेठ और अलका सेठानी ने किया था, अलग-अलग रथ में मारूढ़ होकर भगवान के समवसरण में पाये । उनमें से प्रत्येक की बत्तीस-बत्तीस स्त्रियां थीं। वे भगवान को नमस्कार करके मनुष्यों के कोष्ठ में बैठ गये । भगवान का उपदेश सुनकर उन छहों भाइयों को संसार से वैराग्य हो गया और उन्होंने. भगवान के चरणों में मुनि-दीक्षा ले ली। उन्होंने घोर तप किया। उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई। वे छहों मुनि साथ-साथ ही उपवास, पारणा, ध्यान, धारणा, शयन, आसन और कालिक योग करते थे।
एक दिन भगवान नेमिनाथ के दर्शन करने के लिए राजमाता देवको समवसरण में पहुंची। उन्होंने भगवान की प्रदक्षिणा दो, नमस्कार किया और उनकी स्तुति करके स्त्रियों को कक्ष में बैठ गई। उनके मन में एक शंका कई घण्टों से पल रही थी। उसके निरास के लिये वे हाथ जोड़कर बोलीं-'भगवन ! आज मेरे ग्रावास में अत्यन्त तेजस्वी दो मुनि पाये । दोनों का रूप-लावण्य, तेज-कान्ति समान थी। मैंने उन्हें प्राहार दिया। किन्तु आहार के पश्चात् वह मुनि-युगल पुन: दो बार पाया और पुनः आहार लिया। प्रभो ! क्या उन मुनियों का एक ही भवन में एक ही दिन तीन बार माहार लेना उचित है ? यह भी सम्भव है, तीन बार पाने वाला यह मुनियुगल रूप-सादृश्य के कारण एक ही प्रतीत होता हो । किन्तु भगवन्! इन मुमियों को देखकर मेरे हृदय में वात्सल्य क्यों उमड़ पड़ा। उन्हें देखते ही मेरा प्रांचल दूध से भर गया और उन्हें चाहार देते समय मेरे मन में यह भाव क्यों जागा कि मैं मुनियों को नहीं; अपने ही पुत्रों को भोजन करा रही हूँ?