Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 307
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास युधिष्ठिर नहीं चाहते थे कि भाइयों में परस्पर कटुता उत्पन्न हो । अतः उन्होंने राज्य का परित्याग करके अपने पाण्डव द्वारिका में भाइयों के साथ बाहर जाना ही उचित समझा। ग्रतः वे दक्षिण की ओर चले गये। वे यात्रा करते-करते विन्ध्यवन में पहुँचे। वहाँ एक आश्रम में तपस्या करते हुए महामना विदुर मिले। पाण्डवों ने उन्हें सम्मानपूर्वक नमस्कार किया। वहाँ से चलकर वे लोग द्वारिकापुरी में पहुंच उनके श्रागमन का समाचार सुनते ही समस्त यादव अत्यन्त सन्तुष्ट हुए । महाराज समुद्र विजय आदि दसों भाई, नेमिनाथ, बलभद्र कृष्ण आदि समस्त यादवप्रमुख पाण्डवों के प्रागमन पर अत्यन्त हर्षित हुए। यादव और पाण्डव परस्पर प्रेमपूर्वक मिले। स्वागत सम्मान के बाद श्रीकृष्ण ने उन्हें सम्पूर्ण भोगोपभोग सामग्री से युक्त प्रासादों में पृथक् पृथक् ठहरा दिया। वहां रहते हुए उनका विवाह पांच यादव राजकुमारियों के साथ हो गया---युधिष्ठिर का लक्ष्मीमतों के साथ, भीम का शेषवती के साथ, अर्जुन का सुभद्रा के साथ नकुल का रति के साथ और सहदेव का विजया के साथ । २९२ एक बार कुछ व्यापारी राजगृह पहुँचे। वे सम्राट् जरासन्ध की राज्य सभा में पहुंचे और उन्हें धनध्यं रत्न अर्पित किये। जरासन्ध ने उन रत्नों को बड़े विस्मय से देखा और पूछने लगा--ये बहुमूल्य रत्न तुम्हें कहाँ प्राप्त हुए ? व्यापारियों ने उत्तर दिया- राजन् ! हम लोग सिंहल, स्वर्णद्वीप मादि देशों में व्यापार के निमित्त भ्रमण करते हुए द्वारिकापुरी पहुँचे। उस नगरी की समृद्धि और सम्पन्नता को देखकर हम विस्मित रह गये । वहाँ महा पराक्रमी श्रीकृष्ण राज्य करते हैं। जब महाराज समुद्रविजय और महारानी शिवादेवी के तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ, उससे पन्द्रह मास पूर्व से उस नगरी में देवों ने रत्न वर्षा की। उन्हीं रत्नों में से कुछ रत्न हम लोग आपकी देवा में पारियों की यह बात सुनकर श्रीर यादवों की सुख-समृद्धि की बात जानकर जरासन्ध अत्यन्त कुपित होकर बोला- मैं तो समझता था कि यादव मेरे भय से पलायन करते हुए जलती हुई वितानों में जल मरे हैं। मुझे अब तक ज्ञात ही नहीं हुआ कि मेरे शत्रु, मेरे दामाद और पुत्रों-बांधवों को मारने वाले अधम यादव अब तक जीवित हैं और सम्पन्नता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। क्या अपने चरों की इसी योग्यता के बल पर गिरिव्रज का शासन प्रपने सम्राट् का शासनादेश स्थिर रख सकेगा। अब तक मेरे श्रमात्य ही मुझे और स्वयं को धोका देते रहे हैं। जब तक मुझे ज्ञात नहीं था, तब तक मेरे शत्रु जीवित रहे। अब शांत हो गया है तो वे मेरे विमुख रहकर एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकेंगे। अभी मेरे सभी मित्र नरेशों के पास सेना सहित उपस्थित होने की सूचना भेज दो जाय। अभी यादवों के विरुद्ध अभियान करके उन्हें शीघ्र समूल विनष्ट करना है । मंत्रियों ने अपने सम्राट् को नेमिनाथ- बलभद्र और श्रीकृष्ण के प्रजेय बल- विक्रम की बात बताकर निवेदन किया-देव ! यादवों की शक्ति इस समय अजेय है। उनसे सामनीति के अनुसार शान्ति सन्धि करना अधिक विवेकपूर्ण रहेगा । जरासन्ध ने मंत्रियों के इस परामर्श की उपेक्षा करके अपने मित्र नरेशों के पास सहायता के उद्देश्य से राजदूत भेज दिये तथा एक चतुर दूत द्वारिकापुरी के लिए भी भेज दिया । जरासन्ध का वह राजदूत भजितसेन द्वारिका पुरी पहुँचा और यादवों की राज्य सभा में पहुँचा । यादवों ने उसका समुचित श्रातिथ्य करके उपयुक्त स्थान दिया। राजदूत ने अपने प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करके अपने माने का उद्देश्य बताते हुए कहा- राजन्यवर्ग ! समस्त यादवगण सुनें । परम भट्टारक चक्रवर्ती सम्राट् जरासन्ध के मन में यादवों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है । उनके भय से प्राप लोग अपनी जन्म भूमि त्याग कर समुद्र के बीच में भाकर बस गये हैं। चक्रवर्ती भापको मारवा सन देते हैं कि यदि प्राप चाहें तो पुनः अपनी जन्म भूमि में लोट जायें, उन्हें इसमें कोई प्रापति नहीं है । यदि प लोग यहीं निवास करना चाहें तो भी चक्रवर्ती की आपके ऊपर कृपा-दृष्टि रहेगी । सम्राट् पाए लोगों के हित में और शान्ति एवं सौहार्द के महान प्रयोजनवश केवल यन् चाहते हैं कि आप लोग उन्हें नमस्कार करके अपना सम्राट् स्वीकार कर लें और उनकी छत्रछाया में निर्वाध राज्य-सुख का भोग करें। यदि सम्राट् की माशा का पालन नहीं हुआ तो यादव कुल का विनाश अनिवार्य है । यादव कुल के प्रात जरासन्ध का कोप

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412