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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास अन्त तक का सुनाया कि किस प्रकार लोक-लाज के कारण उसने अपने पुत्र को कम्बल में लपेट माता कुन्ती मोर कर छोड़ दिया था। फिर बोली-पुत्र! मैं तेरी अपराधिनी हूं, किन्तु तू है तो पाण्डु-कुल का कर्ण की भेट ही एक रत्न और धुधिष्ठिर आदि पांडवों का अग्रज । वत्स! चल वहाँ, जहाँ तेरे
बन्धु-बान्धव हैं और कुरु-वंश का स्वामी तू ही है। तु कृष्ण और बलदेव के लिए प्राणों से भी प्रिय है। चलकर तू अपना राज्य संभाल । युधिष्ठिर तेरे ऊपर छत्र लगायगा, भीम चंवर होरेगा, धनंजय तेरा मन्त्री बनेगा, नकुल और सहदेव तेरे द्वारपाल होंगे। फिर तुम सबकी हितकामना करने वालो तुम्हारी माता तुम्हारे साथ है।'
का माता के मनेन रसारित अचन सुनकर दवित हो उठा, किन्तु जरासन्ध ने उसके प्रति जो उपकार किये थे, उन्हें भूलकर वह कृतघ्न नहीं बनना चाहता था । अतः वह बोला--'संसार में माता, बन्धु-बांधव दुर्लभ हैं, यह मैं जानता है, किन्तु युद्ध उपस्थित होने पर स्वामी का कार्य छोड़कर बन्धु-बान्धवों का कार्य करना अनुचित होगा । मैं वचन देता हैं कि मैं अपने भाइयों के साथ युद्ध न करके अन्य योद्धामों के साथ युद्ध करूगा.। यदि युद्ध के पश्चात् हम लोग जीवित रहे तो बन्धुओं के साथ समागम अवश्य होगा।' इतना कहकर उसने माता कुन्ती के चरणों का स्पर्श किया।
व्यूह-रचना-जरासन्ध के पक्ष ने चक्रव्यूह की रचना की। इस चक्रव्यूह में सेना की चक्राकार रचना को गई । इस चक्र के एक हजार भारे थे । उसकी रक्षा के लिए एक-एक पारे पर एक-एक राजा अपनी सेना के साथ उपस्थित था। चक्र के मध्य भाग में जरासन्ध स्थित था । उसकी रक्षा के लिये कर्ण, दूयॉधन प्रादि सौ भाई, गान्धार, सिन्ध और मध्य देश के राजा सन्नद्ध खड़े थे। जरासन्ध ने राजा हिरण्यनाभ को प्राज का सेनापति नियक्त किया।
- दूसरी पोर वसुदेव ने चक्रव्यूह के उत्तर में गरुड़ व्यूह की रचना की । इस व्यूह के मुख पर यादव कुमार नियुक्त किये गये । प्रतिरथ, बलदेव और श्रीकृष्ण उसकें मस्तक पर स्थित हुए। वसुदेव के पुत्र अक्रूर, कुमुद, वीर, सारण, विजय, जय, पद्म, जरत्कुमार, सुमुख, दुर्मुख, दृढ़मुष्टि, विदुरथ और अनावृष्टि बलदेव और श्रीकृष्ण के रथ की रक्षा करने के लिए पृष्ठरक्षक नियुक्त किये गये । राजा भोज गरुड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित हुआ और धारण, सागर आदि अनेक बीर भोज के पृष्ठ रक्षक बनाये गये। महाराज समुद्रविजय गरुड़ के दाये पंख पर स्थित हुए। बलदेव-पुत्र और पाण्डव गरुड़ के बाये पंख पर स्थित हुए। उनके पृष्ठ भाग पर सिंहल, वर्वर, कम्बोज, केरल, कोसल पोर मिल देश के राजा नियत किये गये।
तनी अनेक विद्याधर नरेश अपनी-अपनी सेनायें लेकर वसुदेव के पक्ष में मामि। उनसे यह भी समाचार मिला कि विद्याघरों की एक विशाल सेना जरासन्ध को सहायता करने के लिए पाने वाली है। तब मन्त्रणा करके यादव प्रमुखों ने उन्हीं विद्याधर नरेशों के साथ प्रद्युम्न, शम्य आदि पुत्रों सहित वसुदेव को विजयाचं पर्वत की और इस शत्रु विद्याधर सेना का प्रतिरोध करने के लिए भेज दिया।
सभी वीर युद्ध के लिए सन्नद्ध थे। वीरों की भुजाय अपना कशल प्रस्तुत करने के लिए फड़क रही थो। महाबली वलदेव कुवेर द्वारा समर्पित दिव्य अस्त्रों से परिपूर्ण सिंह रथ पर थारुढ़ हुए। महामना श्रीकृष्ण गरुडांकित पताका से सुशोभित दिव्य अस्त्र शस्त्रों से परिपूर्ण गरुड़ पथ में विराजमान हुए। भगवान नेमिनाथ इन्द्र द्वारा प्रेषित और मातलि सारथी से युक्त रथ में जा विराजे । उनको दिव्य कांति से सम्पूर्ण युद्ध-भूमि प्रभासित थी। तब यादव' प्रमुखों ने परामर्ष करके वसुदेव के महावीर पुत्र अनावृष्टि को सेनापति बनाकर उसके ललाट परककुम का तिलक लगाया।
युद्ध का भेरी-घोष-दोनों पक्षों में युद्ध प्रारम्भ करने की सूचना देने वाले शंख और भेरियों का तुमुल घोष होने लगा। भेरी-घोष सुनते ही दोनों सेनायें परस्पर जझ पड़ी। गज सेना गज सेना के साथ, अश्य सेना प्रश्व सेना के साथ, रथारोही रथारोहियों के साथ और पदाति पदातियों के साथ भिड़ गये। वारों की हुंकारों पौर ललकारों, धनुष की टंकारों, हाथी और घोड़ों की चोरकारों से दसों दिशायें फटने-सी लगीं।