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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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ने अपने भाइयों के साथ मन्त्रणा की कि पाण्डवों को किस प्रकार राज्यच्युत करके उनके पांडवों का पुनः राज्य पर अधिकार किया जाय । इस मन्त्रणा में शकुनि भी सम्मिलित था। वह दुर्योधन प्रज्ञातवास
का मामा था और अमात्य भी था । वह अत्यन्त धूर्त और कुटिल व्यक्ति था। इस विद्या
में बह पारंगत था । उसने परामर्ष दिया-युधिष्ठिर धर्मनिष्ठ व्यक्ति हैं, किन्तु उन्हें उत क्रीड़ा की बहुत रुचि है। उन्हें प्रेरित करके चूत क्रीड़ा के लिए तैयार करो। शर्त यह रहे कि पराजित पक्ष को बारह वर्ष प्रज्ञातवास में रहना होगा । यदि उनका परिचय प्रगट हो जाय तो पुनः बारह वर्ष का अज्ञातवास होगा। माप लोग चिन्ता न करें, मेरे कुटिल दाव को युधिष्ठिर समझ भी न पावगे पौर उन्हें पराजित होना पडेगा । युधिष्ठिर प्रतिज्ञा निभायेगे और उनके भाई उनको प्राशा का अतिक्रमण नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार आप लोग निष्कण्टक राज्य भोगना ।
धूर्त शकुनि का परामर्ष सबको रुचिकर लगा। तदनुसार एक दिन दुर्योधन ने युधिष्ठिर से कहा-धर्मराज! मेरी इच्छा है कि हम दोनों शर्त रखकर द्य त क्रीडा करें। इससे मनोरंजन भी होगा और भाग्य-निर्णय भी होगा। इस क्रीड़ा में जो पराजित होगा, पर पक्ष को बारह
व हालवास गन्दा होगा। समय से पूर्व प्रगट होने पर पुन: बारह वर्ष तक इसी प्रकार अज्ञातवास धारण करना होगा। क्या आप यह चुनौती स्वीकार करने के लिये तैयार हैं?
युधिष्ठिर क्षत्रिय थे। कोई उन्हें चुनौती दे और वे स्वीकार न करें, ऐसा क्या संभव था? उन्होंने दुर्योधन की बात स्वीकार कर ली। चौसर बिछ गई। दोनों पक्ष प्रा जुटे। युधिष्ठिर और दुर्योधन छत क्रीड़ा में उस युग के प्रख्यात विशेषज्ञ माने जाते थे। शकुनि इस विद्या का मर्मज्ञ था। पासे उसके इच्छानुवर्ती थे। वह इस विद्या के गुढ़ रहस्यों, कुटिल दावों और वंचना-प्रवंचनामों में कुशल था। ऐसे महारथियों को प्रतिद्वन्द्विता का समाचार चारों ओर फैल गया । कुतूहलवश दर्शक बहुसंख्या में आ जुटे।
पासे फेके जाने लगे । दाव जीतने पर दर्शक ही नहीं, क्रीड़कों, परामर्षकों, पक्षधरों के मुख से भी हर्षनाद निकल पड़ता था । दाजी जमी, खूब जमी। पहले युधिष्ठिर की निरन्तर विजय होती रही। युधिष्ठिर इससे उत्साहित होकर लम्बे दांव लगाने लगे। कुटिल शकुनि की यह भी एक चाल थी, वह दाना डालकर चिड़िया को फंसाना चाहता था।
कुछ समय बाद बाजी बदली। पासे युधिष्ठिर को धोका देने लगे, वे ही दुर्योधन की इच्छानुकल पड़ने लगे । कहाँ प्रवंचना है, इसे पाण्डव नहीं समझ पाये। कौरव प्रसन्न थे। शकुनि युधिष्ठिर को बड़ा दाव लगाने को बार-बार प्रोत्साहित करता । गया हुया वापिस प्राप्त करने की संभावना से युधिष्ठिर मढ़ों के समान अधिक-अधिक लगाते गये और हारते गये। अन्त में सब कुछ दाव पर लगा दिया और सब कुछ चला गया । अब पाण्डवों को वहाँ से चले जाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं बचा था।नीतिज्ञ वृद्ध जन कह रहे थे-पाण्डवों के साथ धोका हुया है. अन्याय हुआ है । चारों भाई भी क्षुब्ध थे, वे अन्याय का प्रतीकार करने को तत्पर थे। किन्तु युधिष्ठिर ने उन्हें शान्त कर दिया। प्रतिशा के अनुसार वे चारों भाइयों को लेकर चल दिये। उनके साथ केवल द्रौपदी ही गई। - पाण्डव चलते-चलते कालांजला अटवी में पहुंचे। उस वन में असुरोद्गीत नगर का प्रकीर्णकारी का पुत्र सुतार नामक विद्याधर किरात का वेष धारण करके अपनी हृदयवल्लभा कुसुमावली के साथ क्रीड़ा कर रहा था। अर्जुन भ्रमण करते हुए उपर हो जा निकला। किरात अर्जुन के प्रागमन से बड़ा क्रोधित होकर धनुष-बाण लेकर मारने दौड़ा । अर्जुन ने भी अपना गाण्डीव सम्हाल लिया। दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। फिर बाह यज्ञ हमा । अर्जुन ने किरात की छाती पर कस कर मुष्टिका-प्रहार किया। इससे वह अस्त-व्यस्त हो गया। पति की दुर्दशा देखकर विद्याधरी दीनतापूर्वक प्रर्जुन से पति के प्राणों की भिक्षा मांगने लगी। अर्जुन ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करके किरात को छोड़ दिया।
तदनन्तर विभिन्न स्थानों में भ्रमण करते हुए पाण्डव रामगिरि पहुंचे। यह बही पवित्र क्षेत्र था-जही राम, लक्ष्मण और सीता के साथ ठहरे थे और जहाँ उन्होंने संकड़ों जिनालय बनवाये थे। पाण्डव लोग उन्हीं