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नारायण कृष्ण
दर्षा की। महाराज समुद्रविजय इस घन को याचकों में वितरित कर देते थे । इन्द्र के आदेश से छप्पन दिवकुमारियाँ माता की सेवा करती थीं ।
२.
एक दिन माता शिवादेवी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह शुभ स्वप्न देखे । उसी दिन कार्तिक शुक्ला षष्ठी को जयन्त विमान से अहमिन्द्र का जव चलकर माता के गर्भ में अवतरित हुआ । प्रातः काल वन्दोजनों की मांगलिक विरुदावलियों और भेरियों की ध्वनि सुनकर माता शिवादेवो शय्या छोड़कर उठ बैठी और मंगल स्नान किया, वस्त्राभरण धारण किये और बड़ी विनय के साथ अपने पति के निकट जाकर अर्घासन पर आसीन हो गई । पश्चात् उन्होंने रात को देखे हुए स्वप्न सुनाकर उनका फल पूछा । महाराज ने स्वप्न सुनकर उनका फलादेश बताते हुए कहा – देवी ! तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के स्वामी तीर्थंकर श्रवतीर्ण हुए हैं। स्वप्न फल सुनकर रानो प्रत्यन्त हर्षित हुई। उसी समय इन्द्रों ने चिन्हों से तीर्थंकर का गर्भावतरण जान लिया घोर उन्होंने देवों के साथ माकर भगवान का गर्भ कल्याणक महोत्सव किया ।
जन्म कल्याणक - भगवान त्रिलोकीनाथ गर्भ में थे, इसलिये माता को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता था। देवांगनाओं द्वारा संपादित प्रमृतमय माहार करने के कारण उनका शरीर कृश होने पर भी सुवर्ण को कान्ति जैसा देदीप्यमान हो गया था। महाराज समुद्रविजय का यश-वैभव भी निरन्तर वृद्धिंगत हो रहा था। इस प्रकार गर्भ के नौ मास प्रानन्दपूर्वक व्यतीत हुए ।
नौ माह पष्चात् वैशाख शुक्ला त्रयोदशी की शुभतिथि में जब चन्द्रमा का चित्रा नक्षत्र के साथ योग और शुभग्रह अपने उच्च स्थान पर थे, तब शिवादेवी ने अतिशय सुन्दर बालक को जन्म दिया । बालक तीन ज्ञान - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से युक्त था, उसका शरीर एक हजार लक्षणों से युक्त था और नील कमल की आभा का धारक था । प्रसूतिगृह में मणिमय दीपकों की कान्ति उस बालक के तेज से ओर भी अधिक उद्योत को प्राप्त हो गई ।
भगवान के जन्म लेते ही उनके पुण्य प्रभाव से भवनवासी देवों के लोक में स्वयं ही शंखों का जोरदार शब्द होने लगा, भ्यन्तर लोक में पटह बजने लगे, ज्योतिष्क लोक में सिंहनाद होने लगा और कल्पवासी देवों के विमानों में घण्टे बजने लगे। सभी इन्द्रों के मुकुट और सिंहासन चंचल हो उठे। तब चारों निकाय के समस्त इन्द्र देवों के साथ भगवान का जन्म कल्याणक मनाने चल पड़े। अहमिन्द्र यद्यपि श्रपने-अपने स्थान पर हो रहे, किन्तु उन्होंने अपने सिंहासनों से सात कदम सामने जाकर वहीं से जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार किया था।
भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा प्रथम स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के कल्पवासी देव और उनके इन्द्र वहाँ ग्राये । इन सबमें सोधर्मेन्द्र को शोभा अद्भुत थी । वह इन्द्राणों के साथ ऐरावत गजराज पर बैठा हुआ था। गजराज के दांतों पर ग्रप्सरायें नृत्य कर रहीं थीं । इन्द्र के पोछे उसको सात प्रकार की देवसेना चल रही थी। सबसे मागे पदाति थे । फिर भश्य-सेना थी। उसके पीछे बैलों की सेना थी । तदनन्तर रथों की सेना थी । फिर हाथियों की सेना चल रही थी। इसके बाद गन्धर्व सेना थो जिसने मधुर मूर्छना से कोमल वीणा, उत्कृष्ट बांसुरी और ताल के शब्द से मिश्रित सातों प्रकार के आश्रित स्वरों से मध्यलोकको व्याप्त कर दिया था और सबके अन्त में
नर्तकियों की सेना जो नृत्य द्वारा रस-सृष्टि कर रही थी। इन सेनाओं में प्रत्येक की सात कक्षायें थीं । प्रथम कक्षा मैं चौरासी हजार घोड़े, इतने ही हाथी, रथ आदि थे । इससे भागे की कक्षायों में क्रम से दूने दूने होते गये थे ।
ये देव और इन्द्र शौर्यपुर में प्राये तब तक दिक्कुमारी देवियों ने भगवान का जात कर्म निष्पन्न किया । रत्नाभरण धारण करने वाली विजया, वैजयन्ती, अपराजिता, जयन्ती, नन्दा श्रानन्दा, नन्दिवर्धना मोर तत्दोत्तरा देवियाँ जल से पूर्ण कारियाँ लिये खड़ी थीं । यशोधरा, सुप्रसिद्धा, सुकीति, सुस्थिता, प्रणिषि, लक्ष्मी मतो, चित्रा श्री वसुन्धरा देवियाँ मणिमय दर्पण लिये हुए थीं । इला, नवमिका, सुरा, पोता, पद्मावती, पृथ्वी, प्रवर कांचना और चन्द्रिका नामक देवियाँ माता के ऊपर श्वेत छत्र तने हुए थीं। श्री धूनि प्राशा, वारुणी, पुण्डरी किणी, अलम्बुसा, मिश्रकेशी मौर ही देवियाँ चमर लिये लड़ी थीं । कनकचित्रा, चित्रा, त्रिशिरा और सूत्रामणि ये विद्युत्कुमारी देवियाँ भगवान के समीप खड़ी थीं। विद्युत्कुमारियों में प्रधान रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और