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नारायए कृष्ण
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यह संकल्प है। किन्तु रे ला की सूमाण तक पहुँचाने की आप कोई व्यवस्था कर दीजिये
बुम्रा ने तत्काल कुष्ण को एक पत्र लिखा -'महाबली कृष्ण ! पुत्री रुक्मिणी ने जबसे प्रापका नाम सुना हैं, वह आपमें हृदय से अनुरक्त हो उठी है। वह केवल आपके नाम के सहारे जोवन धारण कर रही है। किन्तु उसके पिता और बन्धुजन उसे शिशुपाल को अर्पित करना चाहते हैं। यदि आप माघ शुक्ला अष्टमी के दिन उसका अपहरण करके नहीं ले जाते तो वह शिशुपाल को अर्पित कर दो जायगी। उस दशा में उसका मरण निश्चित है। वह नागदेव की पूजा के बहाने नगर के बाह्य उद्यान में स्थित नाग मन्दिर में उस दिन आपको प्रतीक्षा करेगी। इस पत्र को गुप्त रूप से एक विश्वस्त व्यक्ति के द्वारा कृष्ण के पास भेज दिया। पत्र मिलते ही कृष्ण अपने भ्राता बलभद्र के साथ कुण्डिनपुर पहुँच गये। शिशुपाल भी विदर्भ नरेश भीष्म का निमन्त्रण पाकर 'चतुरंगिणी सेना लेकर वहाँ जा पहुंचा।
रुक्मिणी विवाह की धूमधाम में नाग-पूजा के बहाने अपनी बुमा के साथ नगर के बाह्य उद्यान में नाग-मन्दिर में जापहंची। वहाँ पहुँचकर यह बड़ी अधीरतापूर्वक कृष्ण की प्रतीक्षा करने लगी। क्षण-क्षण का विलम्ब उसे युगों जैसा प्रतीत हो रहा था। उसके प्राण कंठ में अटक रहे थे। कृष्ण-मिलन अथवा मुत्यु-वरण यही उसका संकल्प था। प्रियतम की अंक या मृत्यु का प्रालिंगन, तीसरा कोई विकल्प नहीं था उसके मन में।
कृष्ण ने तभी प्रगट होकर रुक्मिणी से कहा-"प्रिये ! मैं मा गया हूँ | जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रही हो, वह मैं ही हूँ।' रुक्मिणी ने ये प्रमतवर्षी बचन सूने तो उसका रोम-रोम अपूर्व पुलक से भर गया। उसके कमल नयन ऊपर को उठे और लज्जा से फिर अवनत हो गये । कृष्ण ने आगे बढ़कर उसे मालिंगन में बांध लियो । प्रेमीयुगल के इस प्रथम मिलन के साक्षी थे पाषाण के नाग देवता। एक बार तो जैसे वे भी सरस अभिष्वंग पर मुस्करा दिये।
कृष्ण ने अपनी उस कोमल नव परिणय मुग्धा को हौले से उठाकर रथ में बैठा दिया। प्रथम स्पर्श-सुख से दोनों ही प्रेमी कुछ समय के लिये अभिभूत हो गये। कुछ क्षण के पश्चात् जब कृष्ण को नाजुक परिस्थिति का बोध हुआ तो उन्होंने भीष्म, रुक्मी पोर शिशुपाल को रुक्मिणी-हरण का समाचार देकर रथ मागे बढ़ा दिया। तभी कृष्ण ने अपना विख्यात पांचजन्य शंख और बलभद्र ने सुघोष नामक शंख फका । समाचार मिलते हो रुक्मी और शिशुपाल रथों में प्रारूढ़ होकर कृष्ण और बलभद्र का सामना करने पहुँच गये । उनके साथ अपार सेना थी। किन्तु कृष्ण निर्भयता और मानन्द के साथ रुक्मिणी से बात करते हुये धीरे-धीरे रथ हांक रहे थे।
रुक्मिणी ने जब अपार सेना के साथ अपने भाई और शिशुपाल को आते हुए देखा तो वह अत्यन्त व्याकुल होकर कहने लगी-नाथ! मेरा भाई महाबली रुक्मी मोर शिशुपाल विशाल प्रक्षोहिणी लेकर आ विशाल मेना के साथ एकाकी पाप दोनों किस प्रकार युद्ध कर सकेंगे।' कृष्ण ने उसे धैर्य बंधाते हुए कहा-'प्रिये ! चिन्ता मत करो। हम दोनों के रहते तुम्हें भय नहीं करना चाहिये।' उन्होंने अपनी भयभीत प्रियतमा को आश्वासन देते हुए अपनी अंगी के हीरे को लेकर चुटकियों से चूर-चूर कर दिया तथा एक ही वाण से सामने खड़े हुए तमाल वृक्ष को काट दिया।' कृष्ण के इस प्रलौकिक बल को देखकर रुक्मिणी हाथ जोड़कर बोली-नाथ! युद्ध में मेरे भाई का कोई अनिष्ट न हो।' कृष्ण ने उसे अपनी स्वीकृति देकर रथ शत्रु-सेना की ओर मोड़ दिया । कृष्ण शिशुपाल के सामने जा डटे और बलराम ने रुक्मी का सामना किया । कृष्ण के एक बाण से ही शिशुपाल का मस्तक कटकर भलू ठित हो गया। उधर बलराम ने रुक्मी के रथ और सारथी का विनाश करके रुक्मी को बुरी तरह परास्त कर दिया। सारी सेना उन दोनों वीरों के वाणों से पाहत होकर इधर-उधर भाग गई।
दोनों भाई युद्ध में विजयी होकर प्रानन्दपूर्वक वहां से चल दिये । रैवतक पर्वत पर जाकर कृष्ण ने विधि. पूर्वक रुक्मिणी के साथ विवाह किया पौर भाई बलराम के साथ बड़े वैभव के साथ द्वारकापुरी में प्रवेश किया। दोनों भाई अपने-अपने महल में चले गये।
दूसरे दिन कृष्ण ने रुक्मिणी के लिए सब प्रकार की सम्पदामों और सुविधाओं से युक्त एक पृथक महल दिया तथा उसे पटरानी का पद प्रदान किया ! सत्यभामा को अब यह समाचार ज्ञात हुआ तो वह सापत्न्यष से जलने लगी।