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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
अनेक षड्यन्त्र रचे, किन्तु प्रबल पुण्य का स्वामी प्रद्युम्न न केवल हर बार उन षड्यन्त्रों से सुरक्षित रहा, अपितु उनके फलस्वरूप प्रत्येक बार उसे लाभ ही हुआ। एक बार सिजायतन के गोपुर के ऊपर भाइयों के कहने से वह चढ़ गया और वहाँ के रक्षक देव से विद्या, कोष और अनऱ्या मुकुट प्राप्त हुआ, महाकाल गुफा में निर्भय होकर प्रवेश किया और वहाँ के देव से छत्र, पमर, ढाल और तलवार का लाभ हुआ। नागगुफा में प्रवेश करने पर देव ने उसे उत्तम पादपीठ, नागशय्या, प्रासन, वीणा और भवन निर्मात्री विद्या प्रदान की। एक बापिका में जाने पर मकर चिन्ह वाली ध्वजा प्राप्त की। मेयाकृति पर्वत में प्रवेश करने पर दो फण्डल मिले। इस प्रकार भाइयों ने उसे विभिन्न भयानक स्थानों पर जाने के लिए प्रेरित किया और वहां से कुछ न कुछ लाभ प्राप्त करके वह वापिस लौटा, इस प्रकार उसे सोलह लाभ प्राप्त हुए।
प्रद्युम्न की वृद्ध शील-निष्ठा-प्रद्युम्न कुमार मेघकूट नगर में वापिस आया और अपने पिता कालसंवर के दर्शन किये। उसके पश्चात वह अपनी माता कनकमाला के पास पहुंचा। माता ने बड़े दुलार से उसका मस्तक सूघा और निकट बैठाकर उसके शरीर पर हाथ फेरा। किन्तु उसके कामदेव के समान मोहन रूप को देखकर उसके मन में कामवासना जागृत हो गई। वह मन में विचार करने लगी 'उस स्त्री का जन्म सार्थक है, जिसे इसके अगों का स्पर्श प्राप्त हो।' प्रद्युम्न माता को प्रणाम करके चला गया।
दूसरे दिन माला की अस्वस्थता के समाचार सुनकर प्रद्युम्न उसे देखने पाया। किन्तु कनकमाला काम विव्हल होकर काम-वेष्टा करने लगी। प्रद्युम्न इस अप्रत्याशित प्रसंग से मर्माहत हो उठा। उसने माता और पुत्र के सम्बन्ध का स्मरण कराते हुए माता को इस प्रकार की चेष्टा से विरत करने का प्रयत्न किया । कनकमाला ने अब उसे सारा वृत्तान्त सुना दिया कि वह भयानक अटवी में कैसे मिला था । प्रद्य म्न इस बात पर विश्वास न कर सका। किन्तु उसे सन्देह अवश्य हो गया। वह जिनालय पहुंचा, जहाँ मुनिराज सागरचन्द्र विराजमान थे। मुनिराज को नमस्कार करके उनसे अपने सम्बन्ध में पूछा। प्रवधिज्ञानी मुनिराज ने उसे उसके पूर्व भव बताकर उसके अपहरण, अटवी मे उसके मिलने आदि का सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया तथा यह भी सूचित किया--'वत्स ! अभी तुझे कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या का लाभ मिलने वाला है।'
प्रद्य म्न वहां से पुनः कनकमाला के प्रावास में पहुँचा । कनकमाला ने समझा कि इसने मेरी मूक प्रार्थना स्वीकार कर ली है। वह बड़ी प्रसन्न होकर बोली- 'कामदेव ! मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक दो विद्यायें देती हूँ, तू मेरी इच्छा पूरी कर।' प्रद्युम्न ने विनय से माता के चरणों में सिर झुकाया। कनकमाला ने विधिपूर्वक उसे दोनों विद्यायें प्रदान की। प्रद्युम्न ने सिर झुका कर निवेदन किया-'पापने बचपन में मुझे प्राण-दान दिया था और अब आपने विद्यायें देकर विद्या-दान दिया है। अतः पाप मेरे लिये पूज्य हैं।' यों कहकर वह वहाँ से चला गया।
तभी वहाँ नारद आ गये। प्रद्युम्न ने उन्हें नमस्कार किया और बड़ा सम्मान किया। नारद ने उसे उसके वास्तविक माता-पिता का परिचय दिया। प्रद्युम्न अपने माता-पिता से मिलने के लिए आतुर हो गया। उसने काल
संवर प्रादि को नमस्कार करके वहाँ से जाने की आज्ञा मांगी। उन्होंने उसे सहर्ष प्राज्ञा प्रद्युम्न कुमार का दे दी । प्रद्युम्न ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक नारद के साथ विमान में द्वारका के लिये प्रस्थान माता-पिता से मिलन किया। जब विमान हस्तिनापुर के ऊपर पाया तो उसने देखा कि एक विशाल सेना जा
रही है। उसने नारद से उसके बारे में पूछा। नारद ने सत्यभामा और उसकी माता रुक्मिणी में हई शतं की बात बताकर कहा-रुक्मिणी के सेवकों ने तुम्हारे जन्म का समाचार श्रीकृष्ण को पहले दिया था और सत्यभामा के सेवक उसके पुत्र भानुकुमार के जन्म की बात बाद में बता पाये। अत: तुम अग्रज घोषित किये गये। किन्तु धूमकेतु असुर तुम्हारा अपहरण करके ले गया। हस्तिनापुर नरेश दुर्योधन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे पुत्री हुई और रुक्मिणी या सत्यभामा के पहले पुत्र होगा, उसे मैं अपनी पुत्री दूंगा। वह पुत्री तुम्हें मिलनी थी, किन्तु तुम्हारा अपहरण होने के कारण अब यह भानुकुमार को अर्पण करने सेना के साथ द्वारका जा रही है।
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