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हरिवंश की उत्पत्ति
साथ स्वयंवर-मण्डप में प्रवेश किया। तभी शंखों और तुर्यो का मंगल-निनाद हया । राजामों ने कुमारी रोहिणी के अनिद्य सौन्दर्य की प्रशंसा भर सुनी थी। अब अनर्थ्य बस्त्रालंकारों से सुसज्जित मुतिमतो लक्ष्मी के समान रोहिणी की रूपछटा देखकर विस्मयविमुग्ध होकर देखने लगे। सबके मन में उस लालित्य मूर्ति को प्राप्ति को प्राशा को किरण प्रस्फुटित हो रहीं थीं।
_ वाद्यों का तुमुल रव शान्त हुमा । धाय कुमारी रोहिणी को साथ में लेकर यथाक्रम सब राजामों का परिचय देने लगी-हे पुत्रि! ये श्वेत छत्रधारो त्रिखण्डाधिपति महाराज जरासन्ध हैं, ये जरासन्ध के प्रतापी पुत्र हैं, ये मथुरा के तेजस्वी नरेश उग्रसैन हैं, ये शौर्यपुर के स्वामी महा बलवान समुद्र विजय हैं। यदि तेरी रुचि हो तो इनमें से किसी के गले में वरमाला डाल दे। किन्तु धाय ने देखा कि इनमें से किसी के ऊपर कन्या का अनुराग प्रतीत नहीं होता, तब उसने आगे बढ़कर महाराजा पाण्ड, विदुर, दमघोष, इत्तवक्त्र, शल्य, शत्रुजय, चन्द्राभ, कालमुख, पीपाडू, मत्स्य, संजय, सोमदत्त, भूरिश्रवा, अंशुमान, कपिल, पदमरथ, सोमक, देवक, श्रीदेव आदि राजारों के वंश, शौर्य मादि गुणों का परिचय देते हुए कहा-हे सौम्य बदने ! इन नरेशों में से जो तुम्हारे चित्त को हरण करने वाला हो, उसके सौभाग्य को प्रकाशित कर।
किन्तु राजकुमारी ने उत्तर दिया -हे मातः ! आपने उचित ही कहा है। किन्तु आपके द्वारा बताये हुए इन राजामों में से किसी के प्रति मेरा मन अनुरक्त नहीं है।
तभी राजबाला के कर्णकुहरों में पणव की मधुर ध्वनि पड़ी। कन्या ने मुड़कर उस ओर देखा । तभी उसे राजलक्षणों से युक्त कुमार वसुदेव दृष्टिगोचर हुए । उन्हें देखते ही रोहिणी का सम्पूर्ण शरीर हर्ष से रोमांचित हो उठा । वह राजहंसी के समान मन्थर गति से आगे बढ़ो और कुमार बसुदेव के गले में वरमाला डाल दी। कामदेव और रति के समान इस सुदर्शन युगल को देखकर कुछ राजाओं ने हर्ष से कहा-जिस प्रकार रत्न और सुवर्ण का संयोग होता है, उसी प्रकार इन वर-वधू का संयोग हुआ है । इस रत्न पारखी कन्या को धन्य है।
किन्तु कुछ राजा मात्सर्यवश कहने लगे--यह तो घोर अन्याय है । एक पणववादक को वर कर राजकन्या में सम्पूर्ण नरेश मण्डल का अपमान किया है । इस अपमान का प्रतिकार होना ही चाहिए। यदि प्रतिकार नहीं किया गया तो इससे कुल मर्यादा भंग हो जाएगी ! यदि यह व्यक्ति कुलोन है तो अपना कुल बतावे, अन्यथा इसे यहां से निष्काषित करके यह कन्या किसी राजपुत्र को दे देनी चाहिए।
राजाओं का यह अनर्गल प्रलाप सुनकर धीर चीर वसुदेव बोले-राजागण हमारे बचन सुनें। स्वयंवर में आई हुई कन्या मानी इच्छा के अनुरूप किसी का वरण करने के लिए स्वतंत्र है। उसमें कुलौन-अकुलीन का कोई प्रश्न नहीं है। यदि कन्या ने मुझ अपरिचित का सौभाग्य प्रगट किया है तो इस विषय में आप लोगों को कुछ नहीं कहना चाहिए । इतने पर भी पराक्रम के अहंकारवश कोई शान्त नहीं होता है तो मैं कान तक खोंचकर छोड़े हुए वाणों से उसे शान्त कर दूंगा।
इस दर्षयुक्त धमकी को सुनकर जरासन्ध कुपित होकर बोला-इस उद्दण्ड और वाचाल पुरुष को तथा पुत्र सहित राजा रुधिर को पकड़ लो । चक्रवर्ती की प्राज्ञा पाते ही मात्सर्यदग्ध राजा युद्ध के लिए उद्यत हो गये। कुछ राजा तटस्थ होकर अपनी सेना लेकर अलग जा खड़े हुए । जो राजा रुधिर के पक्ष के थे, वे अपनी सेना लेकर वहाँ मा पहुँचे । राजा रुधिर का पुत्र स्वर्णनाभ रोहिणी को अपने रथ पर प्रारूढ़ कर खड़ा हो गया। वसुदेव अपने श्वसुर से बोले-'पूज्य ! मुझे अस्त्र शस्त्रों से भरा हुमा रथ दे दीजिये। ये दम्भी क्षत्रिय एक अज्ञात कुलशील व्यक्ति के वाणों की तीक्ष्णता का अनुभव करें।' राजा रुधिर ने तत्काल अस्त्र-शस्त्रों से भरा हुआ तीव्रगामी अश्वों से युक्त महारथ मंगवा दिया। तभी दधिमुख विद्याधर कुमार के पास आकर बोला-आप मेरे रथ में प्रारूढ़ होकर शत्रु दल का संहार कीजिये। मैं आपका सार
कुमार ने वैसा ही किया। राजा रुधिर की सेना कुमार के चारों ओर एकत्रित हो गई । उस सेना में दो हजार रथ थे, छह हजार हाथी, चौदह हजार धोड़े और एक लाख पदाति थे।
प्रतिपक्ष की सेना का कोई पार नहीं था। दोनों सेनामों ने मामने-सामने मोर्चा जमा लिया। शंख, तुरही