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जैन रामायण प्रकार सिंहनाद किया । रामचन्द्र जी इस सिंहनाद को लक्ष्मण का समझ कर सीता को समझा-बुझा कर और जटायु से उसकी रक्षा करने को कहकर युद्ध के लिये चल दिये। रावण तो इस अवसर की ताक में ही था। उसने पाकर सीता को उठाकर पुष्पक विमान में बैठा लिया। यह देखकर जटायु बड़ी जोर से रावण पर झपटा । उसने अपनी चोंच और नखों से रावण को क्षत-विक्षत कर दिया। रावण ने विघ्न माया देख कर जटायू पर प्रहार किया। बेचारा पक्षी उस प्रहार से मुछित होकर पथ्वी पर गिर पड़ा। रावण पुष्पक विमान को लेकर अपने स्थान को चला गया।
सीता अपना अपहरण जानकर जोर-जोर से राम-राम चिल्लाती हुई विलाप करने लगी। रावण मन में विचार करता जा रहा था-'अभी यह अपने पति के लिये विलाप कर रही है। जब मेरे ठाठ- बाट देखेगी तो यह अपने पति को भूल जायगी और मुझसे प्रेम करने लगेगी। किन्तु मैंने तो गुरु से व्रत लिया है कि किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के बिना भबलात्कार नहीं करूंगा। प्रत. इसे एकान्त उद्यान में रखकर यूक्ति से वश में करना ठीक होगा। इस प्रकार सोचता हुया वह लंका जा पहुंचा।
उघर रण-भूमि में राम को माया देखकर लक्ष्मण बोला 'देव ! आप भयानक वन में सीता को अकेली छोड कर क्यों चले आये ?' राम बोले-'तुम्हारा सिंहनाद सुनकर ही मैं यहाँ चला आया।' लक्ष्मण बड़े प्राश्चर्य में भरकर बोले-'मैंने तो कोई सिंहनाद नहीं किया था।आप शीघ्र चले जाइये।' राम लक्ष्मण को आशीर्वाद देकर
स्थान पर वापिस माय । वहाँ सीता को न पाकर 'सीता, सीता' पुकारने लगे और मूच्छित होकर गिर पडे । जब सचेत हए तो बे फिर विलाप करने लगे -'देवि! तुम क्यों हंसी कर रही हो। तुम जरूर वक्षों के पीछे कहीं छिपी हुई हो, जल्द निकल आयो । क्या तुम मुझे अपने वियोग से मरा हुमा देखना चाहती हो।' इस तरह विलाप करते हुए बे इधर-उधर घूमकर सीता को देखने लगे। तब उन्हें मरणासन्न जटायु धीरे-धीरे कराहता हमा दिखाई दिया । रामचन्द्र एक क्षण को सीता का वियोग भूल गये और जटायु के कान में धीरे-धीरे णमोकार मन्त्र सुनाने लगे। मरते समय जटायु के भाव शुभ हो गये और वह मर कर देवयोनि में उत्पन्न हमा। जटायू के मर जाने से उनका शोक और प्रबल हो गया । वे फिर मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। चेत पाने पर वे फिर विलाप करने लगे-हे वन्य पशुओ! यदि तुमने कहीं मेरी सीता को देखा हो तो तुम मुझे बता दो। हे वृक्षो! यदि
का कुछ पता हो तो तुम्ही बता दो।' जब कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला तो वे निरुद्देश्य ही वजावत धनुष को टंकारने लगे। वे बार बार मूच्छित होते और पुनः चेत पाने पर निरर्थक प्रलाप करने लगते ।
इधर रामचन्द्र जी की यह दशा थो, उधर लक्ष्मण खरदूषण के सैनिकों से पकेले युद्ध कर रहे थे। इतने में चन्द्रोदर का पुत्र विराधित बहाँ पाया और लक्ष्मण से कहने लगा-'देव! हमारा अलंकारपुर नगर हमसे खरदूषण
की कृपा से अब वह हमें मिल जायगा। आप खरदूषण से युद्ध करें और मैं उसके दूष्ट सेनिको से लड़ता हूँ। यों कह कर बिराधित तो सैनिकों से युद्ध करने लगा और लक्ष्मण खरदूषण से युद्ध करने लगे। लक्ष्मण ने उसे सात वार रथमिहोन कर दिया। वह हाथी पर चढ़ कर युद्ध करने लगा तो लक्ष्मण के वाण से उसका हाथी भी मारा गया। तब दोनों में ग्रामरे सामने पैदल ही युद्ध होने लगा। लक्ष्मण ने सूर्यहास तलवार से उसका सिर काट दिया। उधर खरदूषण का सेनापति सुभग दूषण विराधित से जूझ रहा था । लक्ष्मण ने उसके वक्षस्थल पर भिन्दमाल का करारा प्रहार किया और वह भी निष्प्राण होकर भूमि पर गिर पड़ा । सेनापति के मरते ही सेना भाग खड़ी हुई। लक्ष्मण ने सबको अभयदान दिया और शत्रु सेना की सामग्री विराधित को सौंप कर लक्ष्मण शीघ्रता से राम के पास पहुंचे। वहाँ सीता के बिना राम को मूच्छित देखकर लक्ष्मण ने उन्हें सचेत किया और पछा-..'देव! सीता कहाँ है ?' राम ने लक्ष्मण को विना घाव के देखा तो वे प्रसन्न हुए। किन्तु फिर शोक की घटा उमड़ पड़ी धौर विह्वल होकर बोले-पता नहीं, सीता को कोई दुष्ट हर ले गया या पाताल खा गया या उसे प्राकाश निगल गया ।' लक्ष्मण ने उन्हें बड़ी सान्त्वना दी–'देव ! इस प्रकार शोक करने से क्या मिलेगा।' और उनके हाथ-मुह धोए।
कुछ देर पश्चात् विराषित अपनी सेना सहित आकाश-मार्ग से वहाँ माया। लक्ष्मण ने राम से कहा--