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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास यह राजा चन्द्रोदर का पुत्र विराधित है । इसने युद्ध में मेरी बड़ी सहायता की है।' विराधित ने राम को नमस्कार किया और कहने लगा-'महाराज ! अाप जसे पुरुषोत्तम को पाकर मैं कृतार्थ हुआ । मुझे कुछ माज्ञा दीजिये। यह सुनकर लक्ष्मण बोले-'मित्र ! किसी ने मेरे भाई की पत्नी हर ली है। यदि वह न मिली तो भाई उसके वियोग में प्राण दे देंगे और इनके बिना में भी बीवित नहीं रहेगा। इनके प्राणों के आधार पर ही मेरे प्राण हैं । अतः तुम कुछ प्रयत्न करो। विराधित सान्त्वना भरे शब्दों में बोला-'देव ! पाप कुछ चिन्ता न करें। मैं भापकी पत्नी को अवश्य खोज लाऊंगा।'
उसने तत्काल अपने योद्धामों को सीता की खोज के लिए दसों दिशाओं में भेज दिया। उन्होंने सब कहीं छान मारा किन्तु सीता का कुछ पता न चला। वे कुछ काल के बाद लौट पाये। तब राम निराश होकर बोले-'मेरे भाग्य में दुःख ही लिखे हैं। माता-पिता से बिछड़ कर मैं इस जंगल में पाया, किन्तु दुर्भाग्य ने यहाँ भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। सीता के विना में अब एक पल भी जीवित नहीं रहूंगा। आप लोग घर जाइये और सुखपूर्वक रहिये ।' इस प्रकार राम को विलाप करते देखकर लक्ष्मण भी रोने लगे।
तब विराषित ने उन्हें पाश्वासन दिया-'देव ! इस तरह शोक करने से तो सीता मिलेगी नहीं। माप धर्य रख कर कुछ उपाय कीजिये । जीवन रहेगा तो सीता भी मिल जायगी। खरदूषण मारा गया है, अतः उसके पक्ष के रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, मेघनाद, इन्द्रजीत आदि अभी चढ़कर प्रायेंगे। प्रतः आप पल कारपुर धलिये। वहाँ में शीघ्र अपने योद्धाओं को सीता का पता लगाने भेजेंगा और भामण्डल के साथ मिल कर मै और वे दोनों पता लगायगे । यदि में सीता का पता न लगा पाया तो अपने प्राण त्याग दूंगा।' इस प्रकार उसके वचनों से आश्वस्त होकर सब लोग पलंकारपुर चले । वहाँ जाकर नगर को घेर लिया और उस पर अधिकार कर लिया । चन्द्रनखा पश्चिम द्वार से अपने पुत्र के साथ निकल भागी। विराधित ने राम और लक्ष्मण को एक सुन्दर महल में ठहरा दिया । पुरजन अपने राजा को पुनः पाकर बड़े हर्षित हुए । सब लोग बैठकर सीता की खोज का उपाय सोचने लगे। किन्तु उस महल में भी राम को सीता के बिना सब कुछ सूना-सूना लगता था। उन्हें कुछ देर भगवान की पूजा करने से शान्ति मिलती थी।
- रावण विमान में ले जाते हुए सीता को समझाने लगा--'सुन्दरी ! तुम क्यों शोक करती हो । कहाँ वह दरिद्री राम और कहाँ त्रिखण्डपति मैं। मेरे पास संसार की सारी संपदायें हैं। तू राम को ध्यान छोड़कर मेरे साथ
भोग कर और मानन्दपूर्वक शेष जीवन बिता । मैं तुझे अपनी अठारह हजार रानियों में लंका के उद्यान पटरानी का पद दूंगा।' यह कहकर उसने सीता की ओर ज्योंही हाथ बढ़ाया, सीता बड़े कोष में सीता में बोली-'पापी ! खबरदार जो मुझे स्पर्श किया। परस्त्री गमन से तू नरक में पड़ेगा । यदि
तूने मुझे स्पर्श करने का प्रयत्न किया तो सती के शील से तू अभी भस्म हो जायगा।' रावण भयभीत होकर पीछे हट गया और लंका में जाकर अपने महलों के पीछे अशोक उद्यान में सीता को ठहरा दिया।
तभी चन्द्रनखा अपने पुत्र सहित बाल विखेर कर विलाप करती हई वहाँ पाई। उसने अपने पुत्र और पति के वध का समाचार रावण को सुनाया। रावण के घर में हाहाकार मच गया। तब रावण ने उसे समझाते हुए कहा-'बहिन ! तू शोक मत कर । मैं शीघ्र तेरे पति के हत्यारे का वध करके बदला लूंगा। तू यहाँ मानन्दपूर्वक रह। इस प्रकार चन्द्रनखा को सान्त्वना देकर रावण अन्तःपुर में जाकर खेदखिन्न होकर शय्या पर पड़ गया। तब उसकी रानी मन्दोदरी प्राकर कहने लगी 'नाथ ! आप इतने शोकग्रस्त क्यों हैं । खरदूषण मारा गया तो क्या हमा। तब रावण कहने लगा--'देवि! तुम शपथ खाम्रो कि मेरी बात सुनकर तुम क्रोध नहीं करोगो। तब मन्दोदरी ने शपथ खाई। तब रावण बोला-एक भूमिगोचरी की स्त्री सीता को लाकर मैने उद्यान में रखा है। अनेक उपाय करने पर भी वह मेरे अनुकूल नहीं होती। यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहती हो तो तुम जाकर उसे अनुकूल करने का प्रयत्न करो।' मन्दोदरी यह सुनकर बोली-'अच्छी बात है । मैं उसे वश में करके तुमसे मिलाऊँगी।'
यह कहकर मन्दोदरी अशोक उद्यान में सीता के पास पहुंची और समझाने लगी-सड़की ! तू यहाँ