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जयसेन चक्रवर्ती
तो समस्त राजाओं और प्रजा ने मिलकर चक्रवर्ती पद पर उसे ग्रभिषिक्त किया। वह ग्यारहवां चक्रवर्ती कहलाया । वह चौदह रत्न और नौ निधियों का स्वामी था। दस प्रकार के भोग उसे प्राप्त थे । वह इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान नमिनाथ के तीर्थ में हुआ था ।
उसे भोग भोगते हुए जब बहुत समय बीत गया, तब एक दिन उसने देखा कि आकाश से उल्कापात हुआ है । उसे देखते ही उसके मन में चिन्तन की एक कोमल धारा प्रवाहित होने लगी- यह प्रकाश पुंज ऊपर ग्राकाश में स्थित था, किन्तु वह नीचे आगिरा और अन्धकार में विलीन हो गया । 'मेरा तेज भी बहुत ऊँचा है' इस प्रकार का अभिमान जो मनुष्य करता है, उसका तेज भी इस उल्का -पुंज के समान अधोगति को प्राप्त होता है ।
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यह विचार कर चक्रवर्ती ने साम्राज्य त्यागकर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। उसने युवराज को राज्य देना चाहा, किन्तु उसने राज्य न लेकर दीक्षा लेने की इच्छा की। तब उसने क्रम से अन्य पुत्रों को यह भार स्वीकार करने के लिए कहा, किन्तु सबका एक ही उत्तर था - 'यदि आप राज्य-भोग में सुख मानते हैं तो आप ही इसका त्याग क्यों कर रहे हैं। आप हमारे शुभाकांक्षी हैं। आप तपस्या करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें भी उसी मार्ग पर चलने की अनुमति दीजिए ।
पुत्रों का यह उत्तर सुनकर चक्रवर्ती निरुत्तर हो गया । पन्त में उसने छोटे पुत्र को राज्य-भार स्वीकार करने के लिए सहमत कर लिया मौर उसका राज्याभिषेक करके जयसेन अपने पुत्रों और अनेक राजाओं के साथ वरदत्त नामक केवली भगवान के पास समस्त वाह्य मौर माम्यन्तर प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग करके प्रव्रजित हो गये । उन्होंने विविध तप करना प्रारम्भ किया। अल्प समय में ही उन्हें ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं । अन्त में प्रायोपगमन सन्यास मरण करके सम्मेदशिखर के चारण नामक शिखर से जयन्त नामक विमान में महमिन्द्र
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हुए ।