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भगबान नेमिनाथ
जानने की मुझे जिज्ञासा है।' तब मुनि कहने लगे-'पुष्कराध द्वीप के पश्चिम समेह को पश्चिम दिशा में महानदी के उत्तर तट पर गन्धिल नामक एक देश है। उसके विजयाध पर्वत की उत्तर श्रेणी में सूर्यप्रभ नगर का स्वामी राजा सूर्यप्रभ राज्य करता था। उसकी रानी का नाम धारिणी था। उसके तीन पुत्र थे-चिन्तागति, मनोगति और चपलगति । उसी विजयाई पर्वत की उत्तर थेणी में परिन्दमपुर नगर का शासक अरिंजय था। प्रजितसेना उसकी रानी और प्रीतिमती पुत्री थी। पुत्री ने प्रतिज्ञा की थी कि जो विद्याधर मेरु पर्वत को तीन प्रदक्षिणा देने में मुझे जीत लेगा उसे ही मैं वरण करूँगी। इस प्रतियोगिता में चिन्तागति ने उसे जीत लिया। किन्तु उसे जीतकर चिन्तागति कहने लगा—'तू मेरे लघु भ्राता को स्वीकार करले।' किन्तु प्रोतिमती ने उत्तर दिया-'मेरो प्रतिज्ञा है कि जो मुझे जोस लेगा, उसे हो वरण करूँगी। तुमने मुझे जीता है। तुम्हें छोड़कर मैं अन्य को किस प्रकार वरण कर सकती हैं।' चिन्तागति बोला-'तूने उसे प्राप्त करने को इच्छा से ही उसके साथ गति-स्पर्द्धा की थी, अतः तू मेरे लिये स्थाज्य है।'
चिन्तागति का उत्तर सुनकर प्रोतिमती अत्यन्त निराश हो गई। उसे संसार से ही विरक्ति होगई और उसने विवता नामक मजिका के पास जाकर भायिका दीक्षा लेली। राजकुमारी के इस साहस से प्रेरित होकर उन तीनों भाइयों ने भो दमवर नामक मुनिराज के पास जाकर मुनि-दाक्षा लेली। वे तप करने लगे और मरकर चौथे स्वर्ग में सामानिक आति के देव हुए। प्रायु पूर्ण होने पर दोनों छोटे भाई पूर्व विदह क्षेत्र के पुष्कलावतो देश में विजया पर्वत को उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ नगर के राजा गगनचन्द्र पौर रानो गगनसन्दरो के हम दोनों अमितगति तथा अमित. तेज नामक पुत्र हुए। हम तीनों प्रकार की विद्यानों से युक्त थे। एक दिन हम दोनों पुण्डरोकिणी नगरी में स्वयंप्रभ सीर्थकर के दर्शनों के लिये गये। हमने भगवान से अपने पूर्व जन्म के वृत्तान्त पूछे तथा यह भी पूछा कि हमारा बड़ा भाई इस समय कहाँ उत्पन्न हुआ है। भगवान ने बताया कि वह इस समय सिहपुर नगर में अपराजितनाम का राजा है। हम लोगों ने भगवान के समीप ही दीक्षा ले लो। हम लोग पूर्व जन्म के स्नेहवश तुम्हारे पास आये हैं। सेरी घायु केवल एक माह को शेष है । इसलिये तू पात्म कल्याण कर।
राजा ने मुनिराज से अपने जन्म का वृत्तान्त सुनकर उनकी बन्दना की और निवेदन किया-'भगवन ! यद्यपि प्राप वीतराग निम्रन्थ है। फिर भी मापने पूर्व जन्म के स्नेहवश मेर बड़ा उपकार किया है।
मुनि-युगल वहाँ से बिहार कर गया। राजा ने अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्यारूद करके सन्यास ले लिया और प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया । प्रायु पूर्ण होने पर वह सोलहवें स्वर्ग के सातंकर नामक विमान में देव हुना। वाईस सागर की उसकी मायु थी।
कूरुजांगल देश में हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र की श्रीमती रानी थी। वह देव प्राय पूर्ण होने पर रानी के गर्भ में पाया और सुप्रतिष्ठ नामक पुत्र हुमा । कुमार अवस्था पूर्ण होने पर उसका विवाह सुनन्दा के साथ हो गया। सुयोग्य जानकर पिता ने उसे राज्य सोंप दिया और सुमन्दर नामक मुनि के पास दीक्षा लेली। सुप्रतिष्ठ कुशलता पूर्वक राज्य शासन करने लगा। एक दिन सुप्रतिष्ठ ने यशोधर नामक मुनिराज को नवधा भक्तिपूर्वक प्राहार दिया।
आहार निरन्तराय समाप्त हुमा । देवों ने पंचाश्चर्य किये। राजा ने मुनिराज से अणुव्रत धारण किये और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि की । एक दिन राजा राजमहलों के ऊपर बैठा हुआ प्रकृति का सौन्दर्य निहार रहा था। निकट ही रानियाँ बैठी हुई थीं। तभी आकाश में उल्कापात हमा। उसे देखकर राजा के मन में भावनाएँ उदवेलित होने लगी और उसे संसार की क्षणभंगुरता का विचार हो आया । उसे राज्य, भोग सब कुछ निस्सार जंचने लगे। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र सुदृष्टि का राज्याभिषेक कर दिया पौर सुमन्दर नामक जिनेन्द्र के निकट मुनि दीक्षा लेली। उसने ग्यारह घंगों का प्रभ्यास किया और दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया, जिससे सातिशय पुण्य वाले तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध कर लिया। आयु का अन्त निकट जानकर एक माह का सन्यास ले लिया, जिससे वह जयन्त नामक मनुत्तर विमान में महद्धिक अहमिन्द्र हुना। उसकी आयु तेतीस सागर की थी।