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हरिवंश की उत्पत्ति
नेमि और मत्स्य नामक पुत्र हुए। मत्स्य हस्तिनापुर में रहने लगा। मत्स्य के अयोधन, अयोधन के मूल, मूल के शाल, शाल के सूर्य नामक पुत्र हुआ। सूर्य ने शुभ्रपुर नगर बसाया। सूर्य के प्रमर पुत्र हुमा । उसने बजपुर बसाया। अमर के देवदत्त, देवदत्त के हरिषेण, हरिषेण के नभसेन, नभसेन के शड़ ख, शईख के भद्र और भद्र के अभिचन्द्र नामक पुत्र हुमा। अभिचन्द्र ने विन्ध्याचल के ऊपर चेदि राष्ट्र की स्थापना की और शुक्तिमती नदी के किनारे शुक्तिमती नगरी बसाई । अभिचन्द्र से वसु हुअा। बसु का पुत्र बृहद्ध्वज हुआ जो मथुरा में जाकर रहने लगा। वृहद्ध्वज के सुबाहु , सुबाहु के दीर्घबाहु, दीर्घबाहु के वचबाहु, वत्रबाहु के लब्धाभिमान, लब्धाभिमान के भानु, भानु के ययु, ययु के सुभानु और सुभानु के भीम नामक पुत्र हुमा। इस प्रकार अनेक राजा होते रहे । फिर इसी वंश में इक्कीसवें तीर्थ कर भगवान नमिनाथ हुए। आगे चलकर इसी वंश में यदु नामक राजा हुमा। यह बड़ा प्रतापी था। इससे यदुवंश' चला । राजा यदु के नरपति, नरपति के शूर और सुबीर नामक पुत्र हुए। वीर अथवा सुवीर मथुरा में शासन करने लगा और शूर ने कुशद्य देश में शौर्यपुर नगर बसाया और वहीं शासन करने लगा। शूर के अन्धकवृष्णि और सुवीर के भोजकवृष्णि पुत्र हुए। अन्धकवृष्णि के १० पुत्र हुए-१ ममुद्रविजय २प्रक्षोभ्य, ३ स्तिमित सागर, ४ हिमवान, ५ विजय, ६ अचल, ७ धारण, ८ पूरण, ६ अभिचन्द्र, और १० बसदेव, इनके अतिरिक्त दो पुत्रियाँ हुई -कुन्ती और माद्रो। भोजक दृष्णि के उग्रतेन, महासेन और देवसेन नामक पुत्र
राजा वसु का एक पुत्र सुवसु था जो कुञ्जरावर्त नगर(नागपुर) में रहने लगा था । सुवसु के वृहद्रथ पुत्र हुआ । वह मागधेशपुर में जाकर राज्य करने लगा । वृहद्रथ के दृढ़रथ दृढ़रथ के नरवर, नरवर के दृढ़रथ, दृढ़रथ के
सुखरथ, सुखरथ, के दीपन, दीपन के सागरसेन, सागरसेन के सुमित्र, सुमित्र के बप्रथ, वप्रथ के बसु की वंश- विन्दुसार, विन्दुसार के देवगर्भ, देवगर्भ के शतधनु पुत्र हुआ। इसी प्रकार इस वंश में अनेक परम्परा में जरासंध राजा हुए। फिर इस वंश में निहतशत्रु हुआ । उसके शतपति, शतपति के वृहद्रथ और वहद्रथ के
जरासन्ध पुरा हुन्। वह रागृहगा का इनामी पा। मह अर्धचक्री था। उसने भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त करके अर्धचक्री का विरुद पाया था। वह नौवां प्रतिनारायण था। कालिन्दसेना उसकी पटरानी थी। कालयवन प्रादि नीतिज्ञ पुत्र थे। अपराजित आदि अनेक वीर भाई थे।
जरासन्ध ने दक्षिण श्रेणी के समस्त विद्याधरों, उत्तरापथ और दक्षिणापथ के समस्त राजानों, पूर्व पश्चिम समुद्र के तटवर्ती नरेशों और मध्य देश के सम्पूर्ण शत्रुओं को जीत लिया था।
एक बार शौर्यपुर के उद्यान में सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज प्रतिमायोग से ध्यानारूढ थे। एक पक्ष ने उनके ऊपर भयानक उपसर्ग किये। किन्तु मुनिराज अपने ध्यान में अचल रहे और उन भयानक उपसगों के कारण उनके
मन की शान्ति और समता भाव तनिक भी भंग नहीं हुए। बल्कि वे प्रात्मा में स्थित रहकर महाराज समुद्र विजय संचित कर्मों का शुक्ल ध्यान द्वारा क्षय करने लगे। वे श्रेणी आरोहण करके उस स्थिति को का राज्याभिषेक-प्राप्त हो गये, जहां ध्यान, ध्याता, और ध्येय, चैतन्य भाव, चैतन्य कर्म और चैतन्य की क्रिया
अभिन्न एकाकार हो जाती है। उसी समय उन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का विनाश कर दिया। तभी उनकी प्रात्मा विशुद्ध केवलज्ञान की अनन्त पाभा से पालोकित हो उठी। तभी चारों जाति के इन्द्र पौर देव भगवान सप्रतिष्ठ की बन्दना के लिए प्राये। महाराज अन्धकवष्णि भी परिजन-पुरजनों के साथ भगवान के दर्शनों के लिये पाये । पाकर उन्होंने भगवान को वन्दना और पूजा की पौर यथास्थान बैठ गये । तभी भगवान का लोक हितकारी उपदेश हुमा 1 उपदेश सुनकर अन्धकवृष्णि के मन में सांसारिक भोगों के प्रति संवेग उत्पन्न होगया। उन्होंने शौर्यपुर के राज सिंहासन पर कुमार समुद्रविजय का राज्याभिषेक करके उनका पट्टबन्ध किया और कुमार वसुदेव के संरक्षण का भार भी उन्हें सोंप दिया । अन्धकवृष्णि ने भगवान सप्रतिष्ठ के निकट जाकर सम्पूर्ण पारम्भ परिग्रह का त्याग करके मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। उधर भोजक बष्णि ने भी मथुरा में मुनि व्रत धारण कर लिये । महाराज समुद्रविजय ने महारानी शिवादेवी को पट्टबन्ध करके पटरानी घोषित किया । महाराज समुद्रविजय ने यौवन प्राप्त होने पर अपने आठों अनुओं का सुन्दर राम कन्यापों के