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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास साथ विवाह कर दिया । अक्षोभ्य का धृति के साथ, स्मिमित सागर का स्वयंप्रभा के साथ, हिमवान का सुनीता के साथ, विजय का सिता के साथ, अचल का प्रियालापा के साथ, धारण का प्रभावती के साथ, पूरण का कालिगी के साथ और अभिचन्द्र का सप्रभा के साथ विवाह हो गया। सब भाई आनन्दपूर्वक रहने लगे। सभी भाइयों में परस्पर में अत्यधिक स्नेह था। कुमार वसुदेव सभी के प्रिय और स्नेहभाजन थे।
वसुदेव की कुमार- लीलाएं-कुमार वसुदेव यौवन में पदार्पण कर रहे थे। वे शौर्यपुर नगर में देव कुमारों के समान इच्छानुसार क्रीड़ा करते थे। वे कामकुमार थे। रूप, लावण्य, सौभाग्य और चतुरता से वे जन-जन के प्रिय थे। कभी वे लोकपालों का वेष रखकर नगर में निकल जाते थे। उनका शरीर सर्य के समान तेजस्वो और मुख चन्द्रमा के समान सौम्य था। उनके अनिन्द्य सौन्दर्य को देखने के लिए स्त्रियाँ घरों से बाहर निकल आती थीं और उन्हें देखकर काम विह्वल हो जाती थीं। कुमार के रूप में अद्भुत मोहिनी थी।
एक दिन मात्सर्यवश कुछ बद्धजन संघबद्ध होकर राज-परिषद में पहुंचे और महाराज समुद्रविजय को नमस्कार करके निवेदन करने लगे-'प्रभो! पापके राज्य में सम्पूर्ण प्रजाजन आनन्दपूर्वक और निर्भय होकर रह रहे हैं। आपके पुण्य प्रभाव से यहाँ की भूमि शस्य श्यामला बन गई है । वणिक् वर्ग समृद्ध और सुसम्पन्न है। गायभस क्षीरवर्षी हैं । प्रजा के सभी वर्गों को सब प्रकार का आनन्द है, किन्तु थोड़ा-सा दुःख भी है। किन्तु उसे हम लोग प्रगट भी नहीं कर सकते।
यह सुनकर महाराज समुद्रविजय प्रजाजनों से बोले-'भद्रजनो! मेरे राज्य में प्रजाजनों को कष्ट हो, यह मेरे लिये गौरव की बात नहीं है। आप लोग निर्भय होकर अपना कष्ट बताइये। मैं उसे प्राणपण से भी दूर करूँगा।
वृद्धजन महाराज से ग्राश्वासन पाकर कहने लगे-'प्रभो! हमारे अविनय को क्षमा करें। कुमार वसुदेव धीर-चार, चोल शिरोमणि और शुशहदय वाले हैं। किन्तु जब वे नगर में निकलते हैं तो उनका रूप लावण्य देखकर नगर की कुल रिहायाँ गान्ध होकर अपने तन बदन की सुधबुध भूल जाती हैं। वे सारा कार्य छोड़कर घर से बाहर दौड़ पड़ती हैं। नगरवासियों का चित्त इभ्रान्त हो जाता है। हम लोगों ने अपनी मनोव्यथा निवेदन कर दी। अब जो करणीय हो. वह आप कीजिये।
महाराज प्रजाजनों की बात सुनकर विचारमग्न हो गये। कुछ समय पश्चात् प्रजाजनों को पाश्वासन देकर विदा किया । प्रजाजन भी सन्तुष्ट होकर अपने घरों को लौट गये। तभी कुमार वसुदेव नगर-भ्रमण के बाद लौटे। पाकर उन्होंने महाराज को प्रणाम किया । महाराज ने बड़े प्रेमपूर्वक प्रालिंगन किया और बालक के समान उन्हें अपनी गोद में बैठाकर मस्तक सुंधा और स्नेहसिक्त स्वर में बोले-'कुमार ! तुम बन-भ्रमण से परिधान्त हो गये हो । देखो तो, तुम्हारा मुख कैसा मुरझा गया है। सुम्हें भ्रमण के चाव में अपने शरीर की भी सुष नहीं रहती। प्रब भविष्य में तुम्हे स्नान और भोजन के समय का अतिक्रमण नहीं करना है। अब अन्तःपुर के उद्यान में ही तुम क्रीड़ा किया करो।
इस प्रकार अपने प्रिय अनुज को समझाकर महाराज समुद्रविजय उनका हाथ पकड़ कर अपने प्रासाद में ले गये। उन्होंने
स्नान और भोजन किया। उन्होंने इस प्रकार कौशल से व्यवस्था कर दी कि कुमार बाहर न जा पावें और कुमार को प्रतिबन्ध का अनुभव भी न हो। कुमार भी पन्तःपुर के उद्यान में विविध क्रीडायें करने लगे।
एक दिन एक कुब्जा वासी महारानी शिवादेवी के लिये विलेपन लिये जा रही थी कि कुमार ने विनोद में उससे विलेपन छीन लिया। दासी रुष्ट होकर बोली-'कुमार! तुम ऐसी ही हरकतों के कारण कारागार में डाले गये हो।' दासी की बात सुनकर कुमार सशंकित हो उठे और पूछने लगे--'कुब्जे! तूने यह क्या कहा ? मुझे फैसा कारागार ?' तब दासी ने कुमार को सब सत्य बात सुना की। सुनकर वे गम्भीर हो मये और सोचने लगेमिश्चय ही मेरे साथ धोका हुमा है। वे इस बात पर विचार करते रहे और पस्त में एक निर्णय पर पहुंचने का उन्हें सन्तोष हुमा । वे चुपचाप राजप्रासाद और भगर को स्थानकर चल दिये एक मक्यहीन दिशा की मोर । ये
जहान पसुदेव के