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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
हरिवंश की उत्पत्ति
कौशाम्बी नगरी का राजा सुमुख प्रतापी राजा था। उस नगर में व्यापारिक कारणों से वीरक नामक एक सेठ अपनी स्त्री बनमाला के साथ आकर रहने लगा। एक दिन राजा सुमुख वन-विहार के लिये गया। उसकी दृष्टि वन में भ्रमण करती हुई सुन्दरी वनमाला पर पड़ी। उसे देखते ही वह वनमाला पर हरिवंश की स्थापना भासक्त हो गया। उसने किसी उपाय से वीरक सेठ को व्यापार के बहाने विदेश भेज दिया और प्रच्छन्न रूप से वनमाला को अपने महलों में बुलाकर उसके साथ भोग करने लगा। बारह वर्ष पश्चात् सेठ वीरक विदेश से लौटा। जब उसे अपनी स्त्री का पापाचार ज्ञात हुआ तो वह शोकाकुल होकर पागलों के समान इधर उधर फिरने लगा। फिर एक दिन विरक्त होकर प्रोष्ठिल मुनि के पास जाकर मुनि बन गया और मरकर सौधर्म स्वर्ग में चित्रांगद नामक देव हुआ ।
कुछ काल पश्चात् सुमुख और वनमाला ने धर्मसिंह नामक मुनिराज को आहार दिया। उस समय दोनों के मन में अपने कृत्य के प्रति भारी श्रात्मग्लानि और पश्चाताप के भाव थे। दूसरे दिन बिजली गिरने से दोनों की मृत्यु हो गई। सुमुख का जीव भोगपुर के राजा प्रभंजन का पुत्र सिंहकेतु हुम्रा और वनमाला का जीव वस्वालय नगर के नरेश वचाप की बिद्युन्माला पुत्री हुई । विद्युन्माला का विवाह सिंहकेतु के साथ हो गया। एक दिन पति पत्नी बन विहार के लिए गए। उन्हें चित्रांगददव ने देखा। देखते ही उसे पूर्व जन्म के बैर का स्मरण हो आया । उसने मन में निश्चय कर लिया कि 'मैं इन्हें मारूंगा। यह विचार कर वह उन्हें उठाकर ले चला। मार्ग में सूर्यप्रभ नामक एक देव ने उसका अभिप्राय जान लिया । सूर्यप्रभ पूर्व जन्म में राजा सुमुख का प्रिय मित्र रघु था। उस देव ने चित्राङ्गद को समझाया- 'भद्र ! इन दोनों का वध करने से तेरा क्या हित होगा। तू व्यर्थ ही पाप बन्ध क्यों करता है।' यह सुनकर चित्रांगद को भी दया आ गयी पर उन्हें छोड़कर चला गया। तब सूर्यप्रभ देव ने दोनों को आश्वा सन दिया और उन्हें ले जाकर चम्पापुर के वन में छोड़ दिया। इसका कारण यह था कि वह भविष्य में इनको मिलने वाले सुख को जानता था। दैवयोग से उसी समय चम्पापुर का राजा चन्द्रकीर्ति बिना पुत्र के मर गया था । राज्य - परम्परा प्रक्षुण्ण रखने के लिए मन्त्रियों ने विचार कर किसी योग्य पुरुष की तलाश करने के लिए एक समझदार हाथी को छोड़ दिया । वह हाथी घूमता हुआ वन में पहुंचा पोर सिंहकेतु तथा विद्युन्माला को अपने कन्धे पर बैठाकर नगर में पहुँचा । मन्त्रियों ने बड़े मादर के साथ सिंहकेतु का अभिषेक किया और उसे राज सिंहासन पर बैठाया। तब मन्त्रियों ने उससे परिचय पूछा। उत्तर में सिंहकेतु ने कहा- 'मेरे पिता का नाम प्रभंजन है और माता का नाम कण्डू है। कोई देव पत्नी सहित मुझे लाकर यहाँ वन में छोड़ गया है। उसका परिचय सुनकर लोग बड़े प्रसन्न हुए और मृकण्डू का पुत्र होने के कारण उसका नाम मार्कण्डेय रख दिया। वह चिरकाल तक राज्य सुख का भोग करता रहा। ये दोनों भगवान शीतलनाथ के तीर्थ में हुए ।
इन दोनों के हरि नामक पुत्र हुआ । यौवन अवस्था को प्राप्त होने पर पिता ने उसे राज्य भार सौंप दिया। हरि बड़ा प्रतापी और वीर था। उसने बाहुबल द्वारा अनेक राजाओं को पराजित करके अपने राज्य का बहुत विस्तार किया। उसकी ख्याति सम्पूर्ण लोक में फैल गई। इसी से 'हरिवंश' की प्रसिद्धि हुई ।
का गिरि
राजा हरि के महागिरि नामक पुत्र हुमा । महागिरि का हिमगरि, हिमगर का वसुगिरि, वसुगिरि हुआ। इस प्रकार इस वंश में अनेक राजा हुए। फिर सुमित्र हुए। सुमित्र के बीसवें तीर्थ कर मुनिसुव्रतनाथ हुए। मुनिसुव्रतनाथ के सुव्रत, सुव्रत के दक्ष, दक्ष के ऐलेय पुत्र हुआ । उसने हरिवंश की परम्परा इलावर्धन, ताम्रलिप्ति, माहिष्मती, नामक नगर बसाये । ऐलेय के कृणिम पुत्र हुआ । उसने कुण्डिन नगर बसाया । कुणिम के पुलोम पुत्र हुमा । उसने पुलोमपुर बसाया। पुलिम के पौलोम और चरम नामक पुत्र हुए। उन्होंने रेवा के तट पर इन्द्रपुर नगर बसाया। चरम ने जयन्ती तथा बनवास्य नगरियाँ बसाई | पोलोम के महीदस मोर चरम के संजय पुत्र हुए। महीदत्त ने कल्पपुर बसाया । उसके अरिष्ट