Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 273
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भगवान का चतुविध संघ- भगवान के चतुविष संघ में सुप्रभार्य श्रादि सत्रह गणधर थे। ४५० मुनि समस्त पूर्वी के ज्ञाता, १२६०० व्रती शिक्षक मुनि, १६०० प्रवविज्ञानी, १६०० केवलज्ञानी, १५०० विक्रियाऋद्धिषारी, १२५० मन:पर्ययज्ञानी और १००० वादी मुनि थे। इस प्रकार समस्त मुनियों की संख्या २०००० थी । मंगिनो आदि ४५००० प्रायिकायें थीं । १००००० श्रावक और ३००००० श्राविकायें थीं। उनके भक्तों में संख्यात तिर्यंच और असंख्यात देव देवियों थीं । माह शेष निर्वाण कल्याणक— महोत्सव किया । भगवान ने सम्पूर्ण प्रार्यक्षेत्र में विहार करके समीचीन धर्म का उपदेश दिया। जब उनकी आयु में एक रह गया, तब उन्होंने बिहार बन्द कर दिया और सम्मेद शिखर पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और बैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में अश्विनी नक्षत्र में प्रघातिया कर्मों का क्षय करके मक्षय पद प्राप्त किया । वे सिद्ध परमेष्ठी बन गये । देवों और इन्द्रों ने पाकर नमिनाथ स्वामी का निर्वाण कल्याणक यक्ष-यक्षिणी - भगवान नमिनाथ के सेवक यक्ष का नाम भ्रकुटि और यक्षिणी का नाम चामुण्डी था । जयसेन चक्रवर्ती पूर्व भव ऐरावत क्षेत्र के श्रीपुर नगर में वसुन्धर नामक राजा शासन करता था। वह बड़ा प्रतापा और न्यायवान था। दैव-दुविपाक से उसको स्त्री पद्मावती का असमय निधन हो गया । वह अपनी इस रानी से बड़ा प्रेम करता था । यतः उसके मरण से राजा को बहुत दुःख हुआ । उसका मन राज्य और परिवार से विरक्त हो गया । तभी मनोहर उद्यान में बरचर्म नामक केवली भगवान पधारे। राजा उनके दर्शनों के लिए गया और उनका उपदेश सुनकर उसने मुनि दीक्षा लेने का निश्चय किया । पाद मूल में दंगम्बरी दीक्षा लेली । वह घोर उसने अपने पुत्र विनयन्धर को राज्य भार सौंप कर केवली भगवान तप करने लगा । आयु के व्यन्तिम समय में समाधि द्वारा मरण किया । मरकर वह महाशुक्र स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ। वहाँ उसको सोलह सागर की आयु थी। वह महा विभूतिसम्पन्न था। दिव्य भोगों को भोगते हुए उसने यह काल श्रानन्दपूर्वक बिताया । ग्यारहवां चक्रवर्ती-वत्स देश की कौशाम्बी नगरी का अधिपति इक्ष्वाकुवंशी राजा विजय प्रभावशाली नरेश था । उसकी पट्टमहिषी प्रभाकरी की कुक्षि से एक कान्तिमान पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम जयसेन रक्खा गया । उसकी जन्म-लगन और लक्षणों को देखकर ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का प्रधिपति चक्रवर्ती बनेगा । जयसेन बचपन से ही तेजस्वी था। उसकी लीलायें और चेष्टायें प्रसाधारण थीं । वचपन से ही शासन करने को उसकी प्रकृति थी । बड़े-बड़े अभिमानी और उद्दण्ड व्यक्ति भी उसकी भंगिमा देखते ही विनीत बन जाते थे। ऐसा था उसका प्रभाव । जयसेन की प्रायु तीन हजार वर्ष की थी। उसकी प्रवगाहना साठ हाथ की थी। उसके शरीर की कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी । कुमार काल बीतने पर पिता ने उसे राज्य का भार सौंप दिया। कुछ दिनों के वाद उसके शस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । पब महाराज जयसेन ने दिग्विजय करने का विचार किया। वह चारों दिशाओं में गया । उसकी शक्ति धौर तेज के श्रागे सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के राजाओंों का दर्पं चूर-चूर हो गया और सबने 'उसकी श्राधीनता स्वीकार की । जब जयसेन सम्पूर्ण भरतक्षेत्र की विजय करके अपनी नगरी कौशाम्बी वापिस लौटा

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