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चतुर्विंशतितम परिच्छेद
भगवान नमिनाथ
भरत क्षेत्र के वत्स देश में कौशाम्बी नगरी का राजा पार्थिव था। वह इक्ष्वाकु वंशी था। उसके शौर्य की पूर्व भव गाथायें सारे देश में विख्यात थीं। शत्रदल उसके नाम से ही कांपता था। उसकी महारानी सुन्दरी से
सिद्धार्थ नामक पुत्र उत्पन्न हुमा था। एक दिन मनोहर उद्यान में परमावधिज्ञान के धारक मुनिराज मुनिवर पधारे। राजा उनके दर्शनों के लिये गया और उनसे धर्म का स्वरूप पूछा। मुनिराज ने धर्म का यथार्थ स्वरूप बतलाया। उसे सुनकर राजा को संसार प्रसार लगने लगा। वह विचार करने लगा-संसार में प्राणी मरण रूपी मुलधन लेकर मत्यु का कर्जदार होरहा है और प्रत्येक जन्म में उसका यह कर्ज निरन्तर बढ़ता जारहा, है जिसके कारण वह नाना प्रकार के कष्ट भोग रहा है । जबतक यह प्राणी रत्नत्रय रूपी धन का उपार्जन कर मृत्यु रूपी साहकार को व्याज सहित ऋण नहीं ता तब तक इसके दुःखों का अन्त कसे होसकता है 1 यह विचार करके उसने अपने पुत्र को राज्य सोंपकर म मुनिवर से प्रवाश्या ग्रहण करली। सिद्धार्थ न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा।
एक दिन राजा सिद्धार्थ ने अपने पिता पार्थिव मनिराज के समाधिमरण का समाचार सुना। इस समाचार से उसके मन में भारी निर्वेद होगया। उस समय मनोहर उद्यान में महावल नामक केवली भगवान विराजमान थे। उनका उपदेश सुनकर राजा ने अपने पुत्र श्रीदत्त को राज्य-भार देकर केवली भगवान से दिगम्बर मुनि की दीक्षा लेली। परिणाम विशुद्धि के कारण उसे तत्काल क्षायिक सम्यग्दर्शन होगया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन करके सोलह कारण भावनाओं का निरन्तर चिन्तन किया। फलतः उसे तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया। अन्त में समाधिमरण करके अपराजित नामक अनुत्तर विमान में अतिशय ऋद्धि का धारक प्रहमिन्द्र हुआ।
गर्भ कल्याणक-बङ्ग देश में मिथिला नगरी थी। वहाँ के शासक इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री, महाराज विजय थे। उनकी महारानी का नाम वप्पिला था। जब उक्त महमिन्द्र की प्रायु में छह मास शेष रह गये तबसे देवों ने इन्द्र की प्राज्ञा से महाराज विजय के महलों में रत्नवर्षा प्रारम्भ कर दी। जब महमिन्द्र की प्राय पूर्ण उस दिन अर्थात् प्राश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन आश्विती नक्षत्र में रात्रि के पिछले पहर में सुख निद्रा में सो महारानी को तीर्थकर प्रभु के गर्भावतरण के सूचक सोलह शुभ स्वप्न दिखाई दिये। उसी समय उन्होंने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। तभी ग्रहमिन्द्र के जीव ने महारानी के गर्भ में अवतार लिया ।
स्वप्नों के देखने के पश्चात् महारानी की निद्रा भंग होगई । वे प्रावश्यक कृत्यों से निवृत्त होकर मंगल वस्त्राभूषण धारण करके महाराज के निकट पहुँची और देशावधि ज्ञान के धारक महाराज से देखे हुए स्वप्नों का वर्णन करके उनका पल पूछा। राजा ने विस्तार से स्वप्नों का फल बताकर कहा-देवी! तुम्हारे । अवतार लिया है। उसी समय इन्द्रों और देवों ने आकर तीर्थकर प्रभु का गर्भकल्याणक महोत्सव किया।
जन्म कल्याणक-वप्पिला महादेवी ने आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन स्वाति नक्षत्र के योग में समस्त लोक के स्वामी महाप्रतापी पुत्र को जन्म दिया। देवों और इन्द्रों ने उसी समय पाकर भगवान का जन्म कल्याणक
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