Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 272
________________ भगवान नमिनाथ महोत्सब किया। बालक को सुमेरु पर्वत पर लेजाकर उनका क्षीरसागर के जल से जन्माभिषेक किया। सौधर्मेन्द्र में बालक का नाम नमिनाथ रखा। भगवान नमिनाथ की प्राय दस हजार वर्ष की थी। उनका शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा था । शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी। उनका चिन्ह नील कमल था। उनकी प्रायु के ढाई हजार वर्ष कुमार काल में व्यतीत हए । उसके पश्चात् पिता ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। उन्होंने ढाई हजार वर्ष पर्यन्त राज्य शासन किया । एक दिन आकाश मेधाच्छन्न था। शीतल पवन बह रही थी। मौसम सुहावना था। ऐसे समय भगवान नमिनाय हाथी पर प्रारूढ़ होकर वन विहार के लिये निकले। वहाँ आकाश मार्ग से दो देव पाये और भगवान को नमस्कार करके हाथ जोड़कर अपना परिचय देते हुए अपने आने का प्रयोजन कहने लगेदीक्षा कल्याणक देव ! हम दोनों पूर्व जन्म में धातकोखण्ड द्वाप में रहते थे। वहाँ हमने तपस्या को । फलतः हम सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हए । उत्पन्न होने के दूसरे दिन पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित बत्सकावती देश की ससीमा नगरी में भगवान अपराजित तीर्थकर के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा के लिये अन्य देवों के साथ दस दोनों भी गये। वहाँ समवसरण में प्रश्न हया कि इस समय भरत क्षेत्र में भी क्या कोई तीर्थकर है? तब सर्वज्ञ मदर्शी भगवान अपराजितने उत्तर दिया-'बंग देश की मिथिला नगरी में अपराजित स्वर्ग से अवतरित होकर नमिनाथ हए हैं। उन्हें जल्दी ही केवलझान उत्पन्न होगा और वे धर्म तीर्थ की स्थापना करेंगे। इस समय ग्रहस्थ अवस्था में राज्य लक्ष्मी का भोग कर रहे हैं। भगवान के वचन सुनकर कुतुहलवश हम लोग आपके दर्शनों के लिये आगे हैं।' देवों की बात सुनकर भगवान नगर में लौट आये। उन्होंने अवधिज्ञान से जाना कि अपराजित तीर्थकर पौर मेरा जीव पिछले भर में अपराजित विमान में देव थे। उन्होंने मनुष्य भव पाकर जन्म-मरण की शुखला का नाप करने का उद्योग किया, जिसमें वे सफल हए और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। किन्तु मैं प्रनादिकाल के संस्कारवश अभी तक राग-द्वेष के इस प्रपंच में पड़ा हुमा हूँ। मेरा कर्तव्य इस प्रपंच को समाप्त करना है। मझे प्रब उसी का उद्योग करके शुद्ध पात्म स्वरूप की उपलब्धि करना है। भगवान के मन से राग की वासना क्षण मात्र में तिरोहित हो गई मौर भोगों के प्रति उनके मन में निर्वेद भर उठा । भगवान की वैराग्य-भावना होते ही सारस्वत मादि लोकान्तिक देवों ने आकर भगवान की पजा पौर भगयान के विचारों की सराहना की सथा वे अपने स्थान को लौट गये। भगवान ने अपने पुत्र सप्रभ को राज्य-भार सौंप दिया। तभी देवों और इन्द्रों ने पाकर भगवान का दीक्षाभिषेक किया। फिर भगवान उत्तर करू नामक पालकी में मारूढ़ होकर चत्रवन में पहुंचे। वहां उन्होंने बेला का नियम लेकर आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सम्पूर्ण प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग करके एक हजार राजाओं के साथ जेनेन्द्री दीक्षा लेली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय नामक ज्ञान प्राप्त हो गया। केवलज्ञान कल्याणक-भगवान पारणा के लिए वीरपुर नामक नगर में पधारे। वहाँ राजा दत्त ने परमान्न का माहार देकर अक्षय पुण्य का लाभ लिया। भगवान ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए माना प्रकार के कठोर तप करते रहे। इस प्रकार नौ वर्ष तक उन्होंने प्रास्म-साधना में बिताये। तब ये बिहार करते हुए अपने दीक्षा-वन में पहुँचे । वहाँ वे एक वकूल वक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हो गये। यहीं पर इन्हें मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी के दिन सायंकाल के समय समस्त लोकालोक के सम्पूर्ण द्रव्यों और पर्यायों का युगपत् ज्ञान करने वाला निर्मल केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इन्द्रों और देवों ने उसी समय पाकर केवलज्ञान कल्याणक का उत्सव किया । इन्द्र की प्राज्ञा से कुवेर ने दिव्य समवसरण की रचना की, जिसमें गन्धकुटी में सिंहासन पर विराजमान होकर भगवान ने जगत् का कल्याण करने वाला उपदेश देकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया। भगवान का उपदेश सुनकर अनेक मनुष्यों ने सकल संयम धारण किया. अनेक मनुष्यों और तिर्यचों ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये, अनेक मनुष्यों, तिर्थचों और देवों में सम्यग्दर्शन धारण किया।

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