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अंग धर्म का प्राचीन इतिहास इन बातों से पर्वत को बड़ा दुःख हुमा और वह वापिस पाने पर अपनी माता से सम्पूर्ण घटना सुना कर बोला-'पिताजी नारद को जो विद्यायें सिखाते हैं मुझे नहीं बताते ।' बाह्मणी ने उपाध्याय के आने पर पुत्र द्वारा कही हई सारी बातें सुन कर उनसे यही शिकायत की। सुनकर उपाध्याय बोले-वेवी! मैं तो सबको एक सी शिक्षा देता है। किन्तु सबको बुद्धि भिन्न-भिन्न होती है। नारद कुशाग्र बुद्धि है किन्तु तुम्हारा पुत्र सदा से ही मन्द बुद्धि है। तुम व्यर्थ ही नारद से ईष्या न करो।' यों कहकर उन्होंने नारद को बुलवाया और उससे पूछा-'वत्स! प्राज तुम्हारा पर्वत से बन में क्या विवाद हो गया था ?' नारद विनयपूर्वक बोला - 'गुरुदेव ! मेरा वयस्य पर्वत से विवाद तो कुछ नहीं हमा। हो, मैं पर्बत से वन में विनोद-बार्ता करता हुया जा रहा था। उस समय जल पीकर मोरों का झुण्ड लौट रहा था । उस झुण्ड में जो मयूर था, वह पानी में पूंछ के चन्द्रक भीगकर भारी न हो जायें, इससे पीछे की ओर पर करके और मह आगे की ओर करके लौटा था तथा मयूरियाँ जल से भीग जाने के कारण अपने पंख फटकार कर जा रही थीं। यह देखकर मैंने अनुमान लगाया कि इनमें एक मयूर होगा तथा शेष सात मयुरी। यही बात मैंने अपने वयस्य पर्वत से कही थी। आगे चलने पर मैंने देखा कि चलते समय हस्तिनी के पैर उसी के मूत्र से भीगे हैं इससे मैंने जाना कि यह हस्तिनी होगी। उसके दाई मोर के वृक्ष और लताएँ टूटी हुई थीं। इससे मैं. समझ गया कि वह बाई आंख से अंधी है। उस पर बैठी हुई स्त्री मार्ग की क्लान्ति के कारण उतर कर शीतल छाया में नदी के किनारे लेटी थी। उसके उदर के स्पर्श से भूमि पर जो चिन्ह बन गये थे, उससे मैंने अनुमान लगाया कि हथिनी पर सवार स्त्री थी और बह गर्भिणी है। उसकी साड़ी का एक खण्ड किसी झाड़ी में उलझा रह गया था। इसे देखकर मैंने जाना कि वह श्वेत साड़ी पहने थी। यह बात अनुमान से मैंने पर्वत से कही थी।
उपाध्याय और ब्राह्मणी दोनों नारद की बातें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। यह सुनकर उपाध्याय बोले-देवी ! इसमें मेरा क्या अपराध है। मैंने दोनों को समान भाव से अध्ययन कराया है।' सब बातें सुनकर ब्राह्मणी नारद से बहुत प्रसन्न हुई।
तब उपाध्याय ने निमित्त ज्ञानी मुनि की कही हुई बात ब्राह्मणी को बताई और दोनों शिष्यों के भावों की परीक्षा करने का निश्चय किया। उपाध्याय ने आटे के दो बकरे बनाकर नारद और पवंत को सौंपते हुए कहा कि ऐसे एकांत स्थान में जाकर जहाँ कोई देखता न हो चन्दन और माला प्रादि से इसकी पूजा करना और इसे काटकर (कहीं-कहीं कान काटकर) शीन ले पायो। पर्वत एक बन में पहुंचा और एकान्त देखकर वह बकरे को अथवा बकरे के कानों को काटकर वापिस पिता के पास प्रा गया और अपने पिता से बोला--'तात ! पापने जैसा प्रादेश दिया था, मैंने वैसा ही किया है।' उधर नारद सारे दिन वन में पर्वत पर घूमता फिरा, किन्तु उसे कोई ऐसा स्थान नहीं मिला जहां कोई देख न रहा हो । वह संध्या समय घर लौटा और बड़ा म्लान मुख होकर बोला-'गुरुदेव ! मुझे
न नहीं मिल सका, जहाँ मुझे कोई देख नहीं रहा हो। देवता, सिद्ध भगवान, केवली और स्वयं मेरी अन्तरात्मा मेरी हर गति बिधि को देख रहे हैं। दूसरी बात यह है कि शास्त्रों में नाम, स्थापना, द्रव्य पौर भाव इन चारों निक्षेपों में से किसी के द्वारा अभिहित पदार्थों में हिंसा अथवा पापकारी कार्य करने का निषेध है। इसलिए मैं पाटे के इस बकरे के प्रति हिंसा रूप कार्य नहीं कर सका।
नारद की बात सुनकर उपाध्याय अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने नारद की प्रशंसा करते हुए कहा-'हे पुत्र! तुमने बहुत विवेकपूर्ण कार्य किया है। फिर वे पर्वत से कहने लगे—'पर्वत ! तूने बड़ा प्रविवेकपूर्ण कार्य किया है। तुझे कार्य-अकार्य का भी ज्ञान नहीं है। तू बिलकुल निर्बुद्धि है।
उपाध्याय को निश्चय हो गया कि पर्वत अवश्य ही नरकगामी है और नारद उर्व गति प्राप्त करेगा। उन्होंने पर्वत को बहुत कुछ उपदेश दिया, किन्तु ऊसर भूमि में बीज बोने के समान सब व्यर्थ रहा।
कुछ दिनों पश्चात् नारद अपने नगर को चला गया। उपाध्याय क्षीरकदम्ब ने प्रवज्या लेली । उनके स्मान पर पर्वत गरु-पद पर पासीन हो गया और वह गुरुकुल का संचालन करने लगा।
बहत दिन बाद नारद अपने वयस्य पर्वत से मिल और गुरुपाणी की पाद वन्दना करने के लिए पाया। उस समय पर्वत शिष्यों से घिरा हुया बैठा था पौर वह शिष्यों को पाठ पड़ा रहा था। नारद ने पर्वत को मभिवादन