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नारद, वसु और पर्वत का संवाद
भी होने लगे ।
यजुर्वेद भ० ३१ और यंत्र ६, १४ तथा १५ तथा उसके भाष्य से एक बात पर विशेष रूप से प्रकाश पड़ता है कि मानस यज्ञ के प्रस्तोता प्रजापति तथा उनके अनुकूल चलने वाले अर्थात् उनके अनुयायी ऋषि थे । तथा देव श्रर्थात् ऋषि उस मानस यज्ञ से प्रजापति की पूजा करते थे। ये प्रजापति श्राद्यतीर्थंकर ऋषभदेव से अतिरिक्त ग्रन्य कोई व्यक्ति नहीं थे । श्राचार्य समन्तभद्र ने स्वयम्भू स्तोत्र में ऋषभदेव का एक नाम प्रजापति भी बतलाया है— 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषु शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।
मूर्ख देवों ने हविरूप यज्ञ का अर्थ न समझकर यज्ञों में हिंसा का जो विधान किया, उसका भी इतिहास मिलता है । इस सम्बन्ध में हिन्दू पुराणों जैसे मत्स्य पुराण ( मन्वन्तरानु कल्प- देवर्षि-संवाद नामक अध्याय १४६ ) तथा महाभारत (शान्ति पर्व - अध्याय ३३७ तथा अश्वमेध पर्व अध्याय ६१) तथा जैन शास्त्रों - जैसे हरिवंश पुराणसर्ग १७, पद्मचरित पर्व ११, उत्तर पुराण पर्व ६७, भाव प्राभृत ४५, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित पर्व ७, सर्ग २७, वसुदेव हिण्डी प्रथम खण्ड पृ० १८६ १६१ तथा द्वितीय खण्ड पृ० ३५७ यादि में प्रायः समान विवरण उपलब्ध होता | यदि अन्तर भी है तो साधारण सा ही। जिस प्रकार जैन शास्त्रों में वसु आदि सम्बन्धी उपाख्यान में थोड़ा सा अन्तर है, इसी प्रकार हिन्दू पुराणों के उपाख्यानों में साधारण सा अन्तर है । किन्तु हमें यहाँ अन्तर की चर्चा नहीं करनी है, बल्कि समानता की चर्चा करनी है। अनेकता में एकता का अनुसंधान करना ही हमारा लक्ष्य है ।
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जैन शास्त्रों का कथानक इस प्रकार है
राजा अभिचन्द्र की राजधानी में क्षीरकदम्ब नाम का एक विद्वान् रहता था। उसकी स्त्री का नाम स्वस्ति मती और पुत्र का नाम पर्वत था । क्षीरकदम्ब के पास राजा अभिचन्द्र का पुत्र वसु, नारद और पर्वत पढ़ते थे । एक दिन एक श्राकाशचारी निमित्तज्ञानी मुनि कहते जा रहे थे कि इन चार व्यक्तियों में पाप के कारण दो तो नरक में जायेंगे और दो ऊर्ध्वगति प्राप्त करेंगे। ये वचन सुनकर उपाध्याय क्षीरकदम्ब को बड़ी चिन्ता हुई । समझ गये कि इन तीनों शिष्यों में वसु और पर्वत ये दोनों अवश्य अधोगति को जायेंगे और नारद उच्च गति प्राप्त करेगा । एक वर्ष बाद शिष्यों का शिक्षण समाप्त हुआ। तीनों ही शिष्य नाना विषयों के प्रकाण्ड विद्वान् हो गये वसुतो राजमहलों में चला गया। उसे यौवनसम्पन्न और योग्य जानकर उसके पिता अभिचन्द्र ने कहीं-कहीं इनका नाम विश्वावसु भी श्राता है) उसका विवाह कर दिया और उसका राज्याभिषेक करके उन्होंने दीक्षा लेली । बसु राजा हो गया । उसने अपना सिंहासन स्फटिक के स्तम्भों के ऊपर बनवाया। वह सिंहासन ऐसा प्रतीत होता था मानो वह श्राकाश में अधर रक्खा हो। इससे जनता में यह प्रसिद्ध हो गया कि राजा वसु के सत्य के प्रभाव से उसका सिंहासन आकाश में अधर स्थित रहता है। इसी कारण उसका नाम उपरिचर वसु के रूप में विख्यात हो गया ।
नारद कुछ दिनों तक उपाध्याय के घर ही ठहरा रहा। एक दिन नारद और पर्वत दोनों समिधा और पुष्प लाने बन में गये हुए थे । वहाँ उन्होंने देखा कि कुछ मयूर नदी का जल पीकर गये हैं। उनका मार्ग देखकर नारद ने पर्वत से कहा 'वयस्य ! ये जो मयूर गए हैं उन मयूरों में एक तो मयूर है और सात मयूरी हैं। पर्वत बोला- 'गलत बात 1 मैं शर्त लगाता हूँ कि तुम्हारा अनुमान मिथ्या है।' आगे बढ़ने पर मयूरों का झुण्ड मिला। पर्वत को यह देख कर बड़ा प्राश्चर्य हुआ कि नारद ने जो कहा था, वह सत्य निकला। वे लोग कुछ दूर ही गये होंगे कि नारद बोला'मित्र ! यहाँ से अभी एक हथिनी गई है, वह बाई आँख से अन्धी है। पर्वत हँस कर बोला- 'तुम्हारा एक अनुमान घुणाक्षर न्याय से सत्य निकल गया तो तुम समझते हो तुम्हारे सारे धनुमान सत्य होंगे।' पर्वत यों कहकर नारद की बात को ईर्ष्यावश मिथ्या सिद्ध करने के लिए उसी मार्ग का अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ा तो उसे एक हथिनी वृक्ष की शीतल छाया में बैठी हुई दिखाई पड़ी। उसे देखकर पर्वत को विश्वास करना पड़ा कि नारद ने जो कहा था वह सत्य है ।