________________
नारद, वमु और पर्वत का सवाद
किया, पर्वत ने भी प्रत्यभिवादन करके नारद की अभ्यर्थना को। नारद ने गुरुपाणी की पाद-वन्दना की और बैठ गया। पर्वत उस समय 'अर्यष्टव्यं' इस बेद-वाक्य की व्याख्या कर रहा था। वह इसका अर्थ इस प्रकार कर रहा था 'इस मंत्र में अज शब्द पशु परक है। इसलिए स्वर्ग के इच्छुक द्विजों को बकरे से यज्ञ करना चाहिए। नारद ने इस अर्थ पर ग्रापत्ति करते हुए कहा-'बयस्य पर्वत ! तुम यह निन्दनीय व्याख्या क्यों कर रहे हो? हम दोनों वर्षों तक एक उपाध्याय से पढ़े हैं । तुम्हें यह सम्प्रदाय कहाँ से प्राप्त हया है। एक ही गुरु के शिष्यों में सम्प्रदाय-भेद नहीं होता। क्या तुम्हें स्मरण नहीं है, गुरु जी ने यहां अज शब्द का यह अर्थ बताया था कि जिसमें अकुर उत्पन्न होने की शक्ति नष्ट हो गई हो, ऐसा पुराना धान्य अज कहलाता है। ऐसे धान्य से यज्ञ करना चाहिए। किन्तु पर्वत अपने दुराग्रह का त्याग नहीं कर सका। बहिक आवेश में प्राकर कहने लगा-'नारद ! यदि इस विषय में मैं पराजित हो जाऊँ तो अपनी जिव्हा का छेद करवा लंगा। चलो, कल इसका निर्णय राजा वसु से कराते हैं। वह भी हमारा सहाध्यायी रह चुका है।'
नारद तो अपने स्थान पर चला गया। पर्वत अपनी माता के निकट पहुँचा और उसने सारा वृत्तान्त सुना दिया। यह सुनकर माता बड़ा दुखी हुई। वह कहने लगी-'मूर्ख ! यह तूने क्या किया ! नारद का कथन सत्य है। तेरे पिता ने जो अर्थ बताया था, नारद बही कह रहा है । तेरा कहना मिथ्या है।' प्रातः काल होने पर वह राजा बसु के घर गई । बसु ने गुरुपाणी को वन्दना को, उच्च प्रासन दिया और पाने का कारण पूछा। स्वस्तिमती ने वसु को सारा वृत्तान्त सुनाकर उसे धरोहर रक्खी हुई गुरु-दक्षिणा का स्मरण दिलाया और याचना की—'पुत्र! यद्यपि त तत्वं और प्रतत्व को भली भांति जानता है, किन्तु तुझे पर्वत के पक्ष का समर्थन करना है और नारद के पक्ष को दूषित ठहराना है।' गुरु-दक्षिणा का स्मरण दिलाया था, अत: वसु ने गुरुआणी को बात स्वोकार करलो। स्वस्तिमती भी निश्चिन्त होकर घर वापिस पागई।
प्रातः काल राजसभा लगी हुई थी। बसु सिंहासन पर आसीन था, सामन्त गण यथास्थान बठे हुए थे। तभी अनेक शिष्यों से परिवृत उपाध्याय पर्वत और सर्व शास्त्रों में पारङ्गत नारद ने राज-सभा में प्रवेश किया। उपरिचर वसु को आशीर्वाद देकर नारद और पर्वत अपने पक्षधरों और सहायकों के साथ निश्चित स्थान पर बैठ गये। उन दोनों विद्वानों का शास्त्रार्थ सुनने के कुतुहलबश अनेक ब्राह्मण विद्वान पौर वेदपाठी द्विजगण भी सभा में पधारे थे। जब सब यथास्थान बैठ गए, तब ज्ञानवृद्ध और क्योवृद्ध जनों ने राजा वसु से निवेदन किया
राजन ! ये नारद और पर्वत विद्वान् बेद के किसी विषय में विसंवाद होने से आपके पास आये हैं। आप स्वयं विद्वान् हैं, न्यायासन पर विराजमान हैं। आपकी अध्यक्षता में इन विद्वानों के आगे ये दोनों अपने-अपने पक्ष उपस्थित करें और सत्यासत्य एवं जय-पराजय का निर्णय आप करे, हमारी यह प्रार्थना है।
वृद्धजनों की प्रार्थना स्वीकार कर राजा वसु ने पर्वत को पूर्व पक्ष उपस्थित करने की घोषणा की। पर्वत ने अत्यन्त गर्व के साथ अपना पक्ष उपस्थित करते हुए कहा-'अजयंष्टव्यं स्वर्ग कामः' इस वेद मंत्र में प्रज शब्द पश परक है। अज का प्रसिद्ध मर्थ बकरा होता है। अतः इस मंत्र का अर्थ 'स्वर्ग के इच्छुक द्विजों को बकरे से यज्ञ करना चाहिए' है। धात करते समय पशुओं को दुःख होगा, यह आशंका करना ही व्यर्थ है क्यों कि मंत्रों के प्रभाव से वध्य पशु को वध होने पर स्वर्ग के सुख प्राप्त होते हैं।'
इस पक्ष का निराकरण करने के लिए नारद उठा। वह कहने लगा-'सज्जनो! पर्वत ने जो पक्ष रक्खा है, वह नितान्त दूषित है। वेदों में शब्दार्थ की व्याख्या अपने अभिप्राय के अनुसार नहीं होती, गुरु प्राम्नाय से चली आई ध्याख्या ही मान्य होती है। अध्ययन के समान अर्थ-ज्ञान भी गुरु-परम्परा की अपेक्षा रखता है। हमारे पूज्य गुरुदेव ने हम तीनों शिष्यों-वसु, पर्वत और मुझको एक ही अर्थ बताया था, तब विभिन्न शिष्यों का सम्प्रदाय भिन्न कसे हो सकता है। यहाँ 'प्रयंष्टव्यं' इस मंत्र में अज शब्द ऐसे धान्य का काचक है, जिसमें उगने की शक्ति नष्ट हो गई हो ऐसे धान्यों से यज्ञ करना चाहिए।
तब शिष्टजनों ने राजा वसु से निवेदन किया-'राजन् ! मापने गुरु-मुख से जो अर्थ सुना हो, वह अर्थ प्रगट कर इस विवाद का निर्णय कीजिए।'