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जैन रामायण
241 थी । वहाँ दण्डक-वन में पापी रावण ने मुझे हर लिया। इसके लिए राम ने रावण पर आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में रावण मारा गया। हम लोग प्रेमपूर्वक अयोध्या वापिस गये। वहाँ समयानुसार मैं गर्भवती हुई। इसके बाद जनता ने इसका अपवाद करके रामचन्द्र से शिकायत की। उन्होंने उस लोकापवाद के कारण मेरा परित्याग कर दिया । इस तरह अपना सारा वृत्तान्त कह कर वह पुनः रोने लगी। सीता का करुण प्राक्रन्दन सुनकर वनजंघ और उसके सैनिकों के भी आंसू निकलने लगे । वनजंध ने कहा--तू मेरी बहन है । मैं तेरा भाई हैं। चलो, हम लोग घर चलें। वहाँ रहने से फिर रामचन्द्र जी के दर्शन होंगे। इस तरह सीता को समझा बुझा कर वह पालकी में बैठाकर अपने घर ले गया। मार्ग में सीता का परिचय पाकर जगह जगह लोगों ने उसका सम्मान सत्कार किया। नगर प्रवेश करते ही जनता ने बड़े समारोह से उसकी अगवानी की। राजद्वार पर पाकर वनजंघ की रानियां बडे सादर और सम्मान के साथ सीता को अन्दर ले गई । वनजंघ ने आदेश कर दिया कि सीता मेरी बहिन है अत: सब काम उसकी आज्ञानुसार होने चाहिए। सब रानियों ने राजाज्ञा शिरोधार्य की। सीता वहां मानन्दपर्वक रहने लगी तो भी रामचन्द्र जी के बिना उसे सूना सूना लगता था।
उधर कृतान्तवक्त्र वापिस अयोध्या लौटा और रामचन्द्र जी के निकट पहुँचा और नमस्कार कर बोलाप्रभो! यापकी आज्ञानुसार मैं सीता को भयानक वन में छोड़ पाया है।' राम खोले—'सीता ने मेरे लिए कल बहा तो नहीं।' तब सेनापति ने सीता का दिया हुना सन्देश रामचन्द्र जी को वह सुनाया। सेनापति के मुख से सीता का सन्देश सुनते ही राम मूच्छा को प्राप्त हो गये। जब चेत पाया तो बे विलाप करने लगे । फिर कृतान्तव.
छने लगे-'कृतान्तवक्त्र ! कह, क्या तूने सीता को वन में छोड़ दिया? यदि तुने किसी शम स्थान में छोड़ा हो तो तेरे मुख चन्द्र से अमृत रूप वचन बिखरें। यह सुनकर सेनापति ने लज्जा से नीचा मुख कर' लिया। तब राम ने समझ लिया कि यह निश्चय ही सीता को भयानक वन में छोड़ पाया है। यह समझ कर राम पनः मच्छित हो गये। तब लक्ष्मण पाये और मन में दुखित होते हुए कहने लगे—'देव ! क्यों व्याकुल होते हो। धैर्य धारण कीजिए । पूर्वोपाजित अशुभ कमो का फल भोगना ही पड़गा। केवल सीता को ही दुःख नहीं हमा। सारी प्रजा ही दुखी है। यह कहते ही लक्ष्मण का भी धैर्य जाता रहा और वे भी रुदन करने लगे। 'हाय माता ! तू कहाँ गई । जसे सूर्य बिना पाकाश की शोभा नहीं है, इसी प्रकार तेरे बिना अयोध्या की शोभा नहीं रही। फिर राम से कहने लगे, 'हे देव ! सारे नगर में गीत संगीत की ध्वनि बन्द हो गई और रुदम की ध्वनि पाती रहती है। घर घर में सब लोग रुदन करते हैं और सीता के प्रखण्ड सतीत्व और गुणों की ही चर्चा करते रहते हैं । अतः पाप गोक छोड़िये आपका चित्त प्रसन्न है तो सीता को फिर बुला लेंगे। इस तरह समझाने बुझाने से राम का शोक कुछ क्षणों के लिए कम हो गया। किन्तु वे सीता को भुला नहीं सके । उनका मन एक क्षण के लिए भी सीता के बिना नहीं लगता था।
लव-कुश का जन्म और दिग्विजय-नौ मास बीतने पर श्रावण शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार के दिन श्रवण, सत्र में सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया। दोनों पुत्र सूर्य और चन्द्र की तरह कांतिमान थे। उनका मुख देखकर सीता के साथ साथ सब जनों को परम सन्तोष हुमा । वचजंघ ने खूब उत्सव मनाया, जिनेन्द्र देव की पूजा की और यासकों को यथेच्छ दान दिया। बड़े पुत्र का नाम अनंगलवण और छोटे का नाम मदनांकूश रखा गया।
धीरे-धीरे दोनों बालक बढ़ने लगे। उनका मुख देखकर सीता अपना शोक भूल गई । जब वे कुछ बड़े हुए तो सीता को चिन्ता हुई कि इन्हें किस गुरु के पास पढ़ने भेजा जाय । इतने में सिद्धार्थ नामक एक क्षुल्लक भिक्षा के लिए सीता के घर पधारे । वे महाज्ञानी, शील सम्पन्न, तथा कला-विज्ञान के पारगामी थे । शरीर पर केवल एक वस्त्र रखते थे, केशलोंच करते थे, अपने पात्र में ही भोजन करते थे और सदा ज्ञान ध्यान में लीन रहते थे । सीता ने उन्हें प्राहार कराया । माहार करने के पश्चात वे एक आसन पर बैठ गये। सीता भी इन्हें ममस्कार करके पास ही बैठ गई। इतने में दोनों कुमार भी मा गये। उन्हें देखकर क्षुल्लक ने पूछा---'ये दोनों सुन्दर कुमार किसके हैं ?' क्षुल्लक का प्रश्न सुनकर सीता ने पांखों में आंसू भरकर उन्हें सब वृत्तान्त सुनाया । सुनकर क्षुल्लक बोले-'दुःख मत करो पुत्री! तुम्हारे दोनों पुत्र राजा होकर मुक्ति प्राप्त करेंगे । मैं इन्हें सब विद्याओं में निपुण