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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास केवली भगवान का उपदेश सुनकर अनेक लोगों ने संसार विरक्त होकर मुनि दीक्षा लेली । सेनापति कृतान्तवत्र भी मूनि बन गया और तपस्या करके स्वर्ग में देव हमा।
सीता ने वासठ वर्ष तक घोर तप किया और अन्त में सन्यासपूर्वक मरण करके सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र
अपनी स्त्रियों के प्रति भामण्डल की प्रासक्ति बहुत बढ़ गई। वह निरन्तर स्त्रियों के साथ कोड़ा और भोग किया करता था। राम-लक्ष्मण का राज्य निष्कंटक हो गया था। इसलिए उनकी प्रोर से भी प्रब यूद्ध का
निमन्त्रण नहीं पाता था । उसके भी शत्रु नहीं रहे थे । इसलिये वह प्रानन्द के साथ पपना मोसमी भाभाल का काल-यापन कर रहा था। एक दिन अपनी पुष्पवाटिका में बजाक मुनि को माहार-दान निधन देशा दह महलकार पिचार गर दाना-ये भोग क्षणभंगुर हैं, इसलिये इनका
भोग अधिक से अधिक कर लेना चाहिये। न जाने कब बुढ़ापा आ जाय और ये भोग भोगने योग्य प्रवस्था न रहे। अब मैं भोग भी भोगूगा और शत्रुओं को परास्त कर उत्तर और दक्षिण दोनों श्रेणियों का राज्य करूंगा। भोगों में पाप तो है। किन्तु क्या हुमा । जब बुढ़ापा आयेगा और भोग भोगने योग्य नहीं रहंगा. तब मैं मनि-दीक्षा ले लंगा और उन पापों का भी नाश कर डाल
"यह इस प्रकार बंठा-बैठा न जाने कितने मन के कुलाचे बांध रहा था। तभी मकस्मात् बिजली गिरी और भामण्डल उसी में मर गया। इसीलिये तो प्राचार्यों ने कहा है-दीर्घसूत्री विनश्यति।
लक्ष्मण के पुत्र, राम के पुत्र लव और अंकुश का उत्कर्ष सहन नहीं कर सके । फलत: उन्होंने मुनि बनना हो उचित समझा। हनुमान भी एक दिन आकाश में तारे को टूटता हुमा देखकर विचार करने लगे कि संसार के
भोग, यह देह और जीवन भी इसी प्रकार प्रस्यिर हैं, क्षणभंगुर हैं। इन पर क्या विश्वास का वराग्य किया जाय और क्या इतराना। यों सोचकर वे भी मुनि बन गये पोर तपस्या करके अन्त में और मोक्ष-गमन तंगीगिरि से मोक्ष चले गये।
एक दिन सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र देवों की सभा में शास्त्र चर्चा करते हुए कहने लगे तुम्हें देव पर्याय पुण्यों से प्राप्त हुई है। इसको भोगों में नहीं गंबा देना चहिये। यदि यहां भगवान की भक्ति और धर्म की आराधना में मन लगानोगे तो इसके बाद तुम्हें मनुष्य जन्म प्राप्त हो सकता है । तब वहाँ मुक्ति की साधना की जा सकती है।
तब एक देव बोला-देवराज ! स्वर्ग में आकर सब ऐसा ही कहते हैं, किन्तु जब मनुष्य-जन्म मिल जाता है तो सब भूल जाते हैं। देखिये न, राम का जीव पूर्व जन्म में जब ब्रह्म स्वर्ग का इन्द्र था, तब वह भी ऐसी ही वैराग्यभरो चर्चा किया करता था, किन्तु अब राम लक्ष्मण के मोह में कैसे फंस रहे हैं। तब देवराज इन्द्र बोलेअनराग का बन्धन होता दी ऐसा है। राम और लक्ष्मण का भ्रातृ-स्नेह अन्यत्र मिलना कठिन है । इन्द्र सभा समाप्त कर उठ गये।
तब दो देवों ने सोचा-चलकर देखें तो सही, दोनों भाइयों में कैसा स्नेह है। देव प्रयोध्या में लक्ष्मण के महल में पहुंचे । उस समय वे बैठे हये मुंह धो रहे थे। देवों ने राम के महल में जाकर रुदन का कुहराम मचा दिया और ऐसी माया फंलाई कि मंत्री, द्वारपाल आदि लक्ष्मण के पास पाकर कहने लगे --'देव ! पनर्थ हो गया। लक्ष्मण बोले- क्या हमा?' किन्तु किसी के मुख से वचन नहीं निकला, मांखों से आंसुओं को धार बहती रही। बड़ी कठिनाई से इतना ही निकल पाया--'देव ! राम हमको पनाथ कर गये।' लक्ष्मण ने ये शब्द क्या सुने, मानो बच्चपात हो गया। एकदम उनके मुख से 'हाय' निकला और बे निष्प्राण होकर भूमि पर गिर पड़े। देवों को अपने अविवेकपूर्ण कृत्य पर बड़ा पश्चाताप हुमा मोर दुखित मन से बे वहाँ से चले गये।
"लक्ष्मण को मृत्यु होते ही महल में भयानक क्रन्दन शुरु हो गया । लक्ष्मण की रानियां लक्ष्मण की मृत देह को घेरकर विलाप करने लगी। तब किसी ने जाकर रामचन्द्र जी को दुःसंवाद दिया। राम दौड़े पाये । रानियां उनके प्राते ही एक ओर हट गई। राम ने आते ही लक्ष्मण को गोद में उठा लिया और प्रलाप करने लगे-कोन कहता है, मेरा भाई मर गया है, वह तो सो रहा है। फिर लक्ष्मण से कहने लगे--वत्स ! तू तो कभी ऐसा सोता नहीं था।