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जैन रामायण
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उसी रात को महेन्द्र उद्यान में सकलभूषण मुनि को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने आकर ज्ञानोत्सव मनाया। चारों निकाय के देवता वहाँ आये । मेघकेतु नामक एक देव सीता की परीक्षा के लिए बनाये गये अग्निकुण्ड को देखकर इन्द्र से कहने लगा--' प्रभो ! सीता पर घोर उपसर्ग श्रा पड़ा है। वह महासती शीलवती है । उसे दुःख क्यों हो ।' तब इन्द्र ने आज्ञा दी- 'मैं तो केवली भगवान का ज्ञानोत्सव मनाने जाता हूँ। तुम महासती का उपसर्ग दूर करना ।' मेघकेतु देव अपने विमान में आकाश में ठहर गया ।
जब अग्नि कुण्ड की लपटें आकाश को छूने लगीं के राम सोचने लगे-- कैसे सीता को इस भयंकर आग में कूदने दूं । सीता जैसी स्त्री इस लोक में नहीं है। यदि मैं इसे अग्नि प्रवेश से रोकता हूँ तो सदा के लिए मेरे कुल में कलंक लग जायगा । यदि सीता आग में जल कर मर गई तो और भी अनर्थ होगा।' रामचन्द्र जी इधर यह सोच रहे थे, उधर सीता धीरे-धीरे अग्नि कुण्ड के समीप आई । एकाग्र चित्त होकर उसने ऋषभदेव भगवान से लेकर मुनिसुव्रतनाथ पर्यन्त तीर्थकरों की स्तुति की। बाद में बोली- 'हे परिन ! मन से, बचन से. काय से, स्वप्न में या जागृत अवस्था में राम के सिवाय मैंने कभी पर पुरुष की इच्छा नहीं की है। यदि शील में कोई दूषण लगा हो अथवा में व्यभिचारिणी हूँ तो हे अग्नि ! तू मुझे भस्म कर देना । यदि मैं सती हूँ तो मुझे मत जलाना ।' यो कहकर सीता ने णमोकार मंत्र का स्मरण किया और जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर गई। लोग भयभीत होकर, प्राशंकित मन से उसका परिणाम देखने लगे ।
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अचानक प्राग बुझ गई। उसके शील के प्रभाव से अग्नि के स्थान पर निर्मल शीतल जल हो गया, मानो धरती को भेदकर ही यह वार्षिका पाताल से निकली हो । जल में कमल खिल रहे हैं। यहाँ न अग्नि रही, न ईधन । वहाँ तो जल में झाग उठने लगे, भंवर पड़ने लगे। जैसे समुद्र में गर्जन होता है, इस प्रकार उस वापी में घोर शब्द होने लगा, जल उछल कर बढ़ने लगा। पहले घुटने तक आया, फिर छाती तक आया । फिर सिर के ऊपर होकर पानी चलने लगा । लोग डूबने लगे । तब सब श्रावाणी में पुकारने लगे- 'हे माता ! हे महासाध्वी ! हमारी रक्षा करो, हमें बचाओ ।' जनता की इस विह्वल पुकार पर धीरे-धीरे जल रुका, फिर कम होता गया और सिमट कर तालाब बन गया । उसके मध्य में एक सहस्र दल कमल खिल रहा था। उस कमल के बीच में रत्नमयी सिंहासन पर सीता विराजमान थी। देवांगनायें सेवा कर रही थीं। प्रतेक देवों ने बाकर सीता के चरणों पर पुष्प चढ़ाये । श्राकाश से सीता के ऊपर पुष्पवर्षा होने लगी । देव और विद्याघर 'सीता सती हैं' इस प्रकार चिल्लाने लगे, विद्याधर आकाश में नाचने लगे । लवण और अंकुश जल पारकर सीता के पास गये और उसके प्राजू-बाजू बैठ गये । राम भी विद्याधरों के साथ सीता के निकट पहुँच कर कहने लगे-देषी ! उठो, चलो घर चलें। मेरे अपराधों को तुम क्षमा करो। सारे संसार में तुम सती ही नहीं, सतियों में भी प्रधान हों। मेरे प्राणों की रक्षा तुम्हारे ही आधीन है। आठ हजार रानियों में तुम अपना पूर्व का प्रमुख पद संभालो ।' सीता ने उत्तर दिया- मुझे अब भोगों से प्रयोजन नहीं है। भब तो मैं ऐसा उपाय करूंगी, जिससे मेरा नारी-जन्म सफल हो । नाथ! आपके साथ मैंने अनेक सुख भोगे, व उनसे मेरा जी ऊब गया है।' इस प्रकार कहकर सीता ने अपने हाथों से अपने वाल उपाड़ लिये और उन्हें राम के हाथों पर रख दिया । राम उन सुकोमल सुगन्धित बालों को देखकर मूर्छित होकर गिर पड़े। लोग जब तक उन्हें होश में लाने की चेष्टा करते रहे, तब तक सीता ने पृथ्वीमती माथिका के पास दीक्षा लेली औौर प्रायिकावर धारण कर महेन्द्र उद्यान में केवली भगवान के निकट पहुंची ।
राम को होश आया तो सीता को न देखकर उन्हें बड़ा शोक हुआ और सीता को देखते हुए वे सकलभूषण केवली भगवान की सभा में जा पहुँचे। भगवान प्रशोक वृक्ष के नीचे सिहासन पर विराजमान थे, दिव्य छत्र उन पर लगे हुए थे । चमर दुर रहे थे। माठ प्रातिहार्य से सम्पन्न थे। चारों ओर देव, मनुष्य और तिर्यच बैठे हुए थे । रामचन्द्र जी ने वहाँ पहुँचकर म्रष्ट द्रव्य से भगवान की पूजा की और मनुष्यों के भाग में बैठ गये । लक्ष्मण श्रादि अन्य लोग भी उसी प्रकार भगवान की स्तुति पूजा कर राम के साथ ही बैठ गये । सबने भगवान का कल्याणकारी उपदेश सुना ।