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जैन रामायण
किया- 'महाराज ! बहुत प्रजाजन प्रापके दर्शनों के लिए पाना चाहते हैं।' राम ने सबको अन्दर ले पाने की आज्ञा दी। प्रजाजन पाकर नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये। राम ने पूछा-'कहिए, आप लोग कसे आए। मेरे
राज्य में आपको कोई कष्ट तो नहीं है?' यह सुनकर सब चुप रह गये। राम ने फिर कहा-'आप लोग भय मत - करिए, जो कुछ मन में हो, निस्संकोच कहिए। अभय पाकर एक लोकचतुर विजय नाम का प्रजाजन हाथ जोड़कर बोला--'प्रभो! निवेदन यह है कि प्राजकल देश में बड़ा मनाचार फैल रहा है। एक को स्त्री दूसरा भगा ले जाता है और वह दो तीन महीने उसके घर रहकर वापिस पा जाती है। यदि कोई पूछता है कि उस व्यभिचारिणी स्त्री को तुमने क्यों रख लिया। तो जवाब मिलता है कि रामचन्द्र जी भी तो सीता को रावण के घर से छह महीने के बाद ले पाये हैं। जब छह महीने रावण के संपर्क में रहने वाली सीता को राम जैसे धर्म धुरन्धर मर्यादा पुरुषोत्तम राजा भी पुनः अंगीकार कर सकते हैं, तब वे हमें अपनी अपहृत स्त्रियों को रखने से कैसे रोक सकते हैं। इस तरह दुष्ट सोग दिनदहाड़े आपका उदाहरण देकर यह अनाचार कर रहे हैं। अतः जिस प्रकार यह अनाचार रुके. वह उपाय मापको करना चाहिए।
प्रजाजनों की यह बात सुनकर क्षण भर को राम गम्भीर हो गये, फिर बोले-प्रच्छा, पाप लोग जाइये, मैं इसका कुछ उचित उपाय करूंगा। प्रजाजन लौट गये ।
रामचन्द्र जी सोचने लगे-हाय ! जिसके बिना मैं व्याकूल रहा, जिसके लिए रावण को मारने समुद्र पार कर गया, उसके बिना तो मेरा जीना ही व्यर्थ हो जायेगा। हाय ! सुशील गुणवसी सीता मुझसे कैसे छोड़ी जाएगी। उसके बिना तो मैं एक घड़ी भर भी स्थिर नहीं रह सकता, उसके बिना मैं जीवन भर उसका दुःख कसे सहूंगा। यदि उसे न छोड़ा तो सदा के लिये मेरे कूल में कलंक लग जायेगा। इस प्रकार सोचकर उन्होंने लक्षमण को बुलाया और बोले-'वत्स! सीता के बारे में बड़ा लोकापवाद फैल रहा है। प्रत: मैं उसे जंगल में छोड़ देना चाहता हैं।' लक्ष्मण यह सुनकर बड़ा कुद्ध होकर बोला-कौन तुष्ट सीता को लेकर प्रपवाद फैला रहा है। मैं उसका अभी तलवार से सिर उतारता हूं। सीता के समान पाज भी कोई पतिव्रता नहीं दीखती। उसमें जो दोष बतलाता है, में उसकी जीभ काट लगा। समझ में नहीं पाता, दृष्ट लोगों के कहने से पाप सीता को कैसे छोड़ रहे हैं। राम ने समझाया- 'लक्ष्मण ! ऐसा मत कहो । सीता को रखने से हमारे वंश में हमेशा के लिए कलंक लग जाएगा। प्रतः मैं सीसा का अवश्य परित्याग करूंगा। तुम्हें मगर मुझसे स्नेह है तो इस विषय में मौन ही रहना । हे लक्ष्मण ! जैसे सूखे इंषन में लगी पग्नि जल से बुझाये बिना वृद्धि को प्राप्त होती है, उसी प्रकार अपकीर्ति रूपी अग्नि पृथ्वी पर फैलती है। उसका निवारण किए बिना मिटती नहीं यह तीथंकरों का समुज्वल कुल प्रकाश रूप है। इसको कलंक न लगे, वह उपाय करना चाहिए। यद्यपि सीता महा निर्दोष है, शीलवती है फिर भी मैं उसका परित्याग काँगा, मैं अपनी कीति मलिन नहीं करूंगा। किन्तु लक्ष्मण को इन बातों से सन्तोष नहीं हुआ। वे उदवेग से बोले-'देव! लोग तो मनियों की भी निन्दा करते हैं, धर्म की भी निन्दा करते हैं तो क्या लोगों के अपवाद के घर से मुनियों को छोड़ दें, धर्म को छोड़ दें। इसी तरह कुछ दुष्ट लोगों के अपवाद के भय से जानकी को कैसे छोड़ दें। तब रामचन्द्र जी समझाने लगे-'लक्ष्मण ! जो शुद्ध न्यायमार्गी मनुष्य हैं, वे लोक विरुख कार्य छोड़ देते हैं। जिसकी बसों दिशाओं में प्रकीति फैल रही हो, उसे संसार में क्या सुख है।'
यह कहकर राम ने कृतान्तवक्त्र सेनापति को कुनाया। और उससे कहा कि 'तुम तीर्थ यात्रा कराकर सीता को किसी बियापान जंगल में ले जानो और वहाँ छोड़कर शीघ्र लौट प्रायो।' 'जो माज्ञा' कहकर सेनापति रय लेकर सीता के महल पर गया और कहा 'माता ! उठो । रामचन्द्र की माज्ञानुसार तुम्हें तीर्थ यात्रा के लिए चलना है।' सीता बड़ी प्रसन्नता से उठी, तैयार हो सबसे मिलकर यात्रा को चली। विशल्या आदि रानियों ने सीता के पर छुए । सीता ने अपनी सासुमों के पैर छुए और देवरानियों से बोली-'तीर्थयात्रा कर शीघ्र ही लौटकर सबसे मिलूंगी । वैसे तो इस हालत में न जाती परन्तु सौभाग्य से मुझे दोहला ही ऐसा हुया है कि मैं तीर्थ वन्दना करू पौर दान पुण्य करूं। मगर सकुशल लौट आई तो फिर सबके दर्शन करूगी। पाप सब मेरे अपराधों को ममा करना।' इस तरह कहकर सीता रथ में बैठकर राम के पास गई और उनसे माज्ञा लेकर यात्रा को विदा हुई।