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जैन रामायरण
राम-लक्ष्मण का राज्याभिषेक -- भरत के दीक्षा लेने पर लक्ष्मण को बड़ा शकि हुआ। वह भरत के गुणों का बार-बार बखान करता। राम भी भरत के गुणों की चर्चा करते रहे। सारे नगर में भरत की ही प्रशंसा के गीत गाये जाने लगे । घर-घर उन्हीं की चर्चा थी ।
अगले दिन सब राजा मिलकर राम के पास था और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगे देव ! हम सब भूमिगोचरी र विद्याधर राजा आपसे एक निवेदन करने थाये हैं। हम सब आपका राज्याभिषेक करना चाहते हैं।' राम यह सुनकर बोले- 'तुम सब लक्ष्मण का राज्याभिषेक करो। वह नारायण है। वह सदा मेरे चरणों में नमस्कार करता है । फिर मुझे राज्य की क्या आवश्यकता है।' सब राजा तब लक्ष्मण के पास गये और उनसे राम का सन्देश कह कर राज्याभिषेक को अनुमति मांगने लगे । लक्ष्मण सबको अपने साथ लेकर राम के पास आए और बोले - 'देव' ! इस राज्य के स्वामी तो श्राप ही हैं। मैं तो आपका सेवक है।' तब राम ने बड़े स्नेह से कहा'वत्स ! तुम चक्र के धारी नारायण हो इसलिए राज्याभिषेक तुम्हारा ही होना उचित है ।' तब अन्त में सबने यह निश्चय किया कि राज्याभिषेक दोनों का होना चाहिए।
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नाना प्रकार के बाजे बजने लगे ! याचकों को मनोवांछित दान दिया गया। कमल पत्रों से ढके हुए स्वर्ण कलशों में पवित्र जल भर कर उससे दोनों का एक ही आसन पर अभिषेक किया गया। दोनों भाइयां को मुकुट, भुजबन्ध, हार, केयूर, कुण्डलादि श्राभरण और कौशेय वस्त्र धारण कराये। तीनों खण्डों के प्राए हुए विद्याघर और भूमिगोचरी राजानों ने दोनों का जय-जयकार किया। राम और लक्ष्मण का अभिषेक करने के बाद विद्याधर भूमिगोचरी रानियों ने सीता और विशल्या का अभिषेक किया। सीता राम की और विशल्या लक्ष्मण की पटरानी बनी ।
अभिषेक के बाद राम ने लंका विभीषण को दी, किष्किंधापुर सुग्रीव को, श्रीनगर और हनुरुह द्वीप का राज्य हनुमान को अलंकारपुर विराधित को, वैताढ्य की दक्षिण श्रेणी का रथनूपुर भामण्डल को दिया और उसे समस्त विद्याधरों का अधिपति बनाया । रत्नजदी को देवोपुनीत नगरी का राज्य दिया । अन्य लोगों का भी यथायोग्य सम्मान किया ।
सबसे निवृत्त होकर राम शत्रुघ्न से बोले भाई ! तुझे जो पसन्द हो, वहाँ का राज्य ले ले; चाहे तु श्रावी अयोध्या ले ले चाहे पोदनपुर, हस्तिनापुर, बनारस, कौशाम्बी, शिवपुर इनमें से किसी को चुन बोला- 'मुझे तो मथुरा का राज्य चाहिए।' राम ने कहा- 'वहाँ हरिवंशी राजा मधु राज्य ले ।' शत्रुघ्न कर रहा है और वह रावण का दामाद है। उसके पास नागेन्द्र का दिया हुआ त्रिशूल है । उसके कारण उससे कोई युद्ध नहीं कर सकता । लक्ष्मण भी उससे शंकित रहता है। तब तू उसे कैसे जीत सकता है ।' शत्रुघ्न बोला- 'श्राप तो मुझे मथुरा का ही राज्य दे दीजिए। उसका श्रभिमान में चूर करूंगा। राम ने उसका आग्रह देखकर मथुरा का राज्य दे दिया। शत्रुघ्न सबको प्रणाम कर चतुरंगिणी सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण करने चल दिया । लक्ष्मण ने उसे अपना सागरावतं धनुष और कृतान्तवक्त्र सेनापति भी दे दिया ।
शत्रुघ्न द्वारा मथुरा-विजय
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शत्रुघ्न ने यमुना तट पर अपना पड़ाव डाल दिया । उसने एक गुप्तचर को मथुरा भेजा। उसने आकर समाचार दिए कि बाज छह दिन हुए, मधु नन्दन वन में कोड़ा करने गया है। सारा परिवार और अनेक सामन्त 'उसके साथ हैं । वह यहाँ से तीन योजन दूर है। शत्रुघ्न ने मथुरा में जाकर रातों रात उस धन-जन से परिपूर्ण नगरी पर अधिकार कर लिया। शस्त्रालय, कोष और राजमहल पर फोजो पहरा बैठा दिया। शासन सूत्र अपने हाथ में लेकर मथुरा पर रघुवंशियों के शासन की योंकी पिटवा दी।
प्रातःकाल होते ही किसी ने वन में जाकर राजा मधु से यह समाचार कहा। मधु मथुरा पर शत्रुघ्न का अधिकार सुनकर क्रोध से जलता हुआ मथुरा आया । मधु के पास इस समय त्रिशूलरत्न नहीं था, फिर भी उसने नगर को घेरकर युद्ध की घोषणा कर दी। शत्रुघ्न की कुछ सेना युद्ध के लिए बाहर आई। जब मधु की सेना दबने लगी तत्र उसका पुत्र लवणार्णव युद्ध के लिए आया और उसने शत्रुघ्न की सेना तितर-बितर कर दो। यह देखकर