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जैन रामायाण मय ने तब हनुमान का रथ तोड़ दिया। इसके बाद भामण्डल, सुग्रीव, विभीषण मय से लड़ने प्राये । मय ने अपने बाणों मे सबको ब्याकुल कर दिया। तब राम युद्ध में कूद पड़े। दोनों में घोर युद्ध हुआ। आकाश वाणों से आच्छादित हो गया। असंख्य योद्धा कट-कट कर मरने लगे। हाथी और घोड़ों को चीत्कारों से कान के पर्दे फटने लगे। लाशों दे. अम्बार लग गये । मय ने अनेक मायामयी वाण राम के ऊपर चलाये, किन्तु राम ने उन सबको बीच में ही प्रभावहीन कर दिया । उल्टे राम ने मय को अपने वाणों से जर्जरित कर दिया। मय को यह दशा देखकर रावण युद्ध करने पाया । उसे ललकारते हुए लक्ष्मण ने कहा--'अरे पापा ! तू प्राण लेकर मेरे आगे से कहा जाता है । आज धर्मबुद्धि रामचन्द्रजी ने मुझे माशा दी है कि तुझ परस्त्री चोर का आज शिरच्छेद कर दूं। रावण बोला-'मरे! क्यों व्यर्थ बकवास कर रहा है। सिंह के पागे कुत्ते का इतना साहस।' यों कहकर रावण ने लक्ष्मण को वाणों से ढक दिया। बदले में लक्ष्मण ने भी बाणों से रावण को व्याकुल कर दिया। तब रावण मायामयी शस्त्रों से युद्ध करने लगा । लक्ष्मण ने उसका उसी प्रकार उत्तर दिया। दोनों भोर से जलवाण, पवनवाण, अग्मिवाण, नागवाण,गरुणास्त्र, अन्धकार-याण, प्रकाशवाण, निद्रावाण, प्रबोधवाण आदि मायामय अस्त्रों से बड़ी देर तक युद्ध होता रहा।
इसी समय आकाश में आठ विद्याधर कुमारियाँ पाई। वे लक्ष्मण को मंगल-कामना करने लगीं। जब लक्ष्मण ने ऊपर की ओर देखा तो उन कुमारियों ने लक्ष्मण को सिद्धार्थ नामक महाविद्या दी। लक्ष्मण ने इससे रावण की सम्पूर्ण विद्याश्री का प्रभाव नष्ट कर दिया। अब सपा बहरूपिणी विसाक रूप सागर या करने लगा। लक्ष्मण उसका एक सिर काटते, उसको जगह सौ सिर बन जाते। रावण अनेक सिर और मजायें बनाता और लक्ष्मण उन्हें काटता जाता । इस प्रकार दोनों में ग्यारह दिन तक भयंकर यूद्ध होता रहा । लक्ष्मण के बाणों से बहरूपिणो विद्या का शरीर भी जर्जर हो गया। अत: वह भी रावण के शरीर से निकल भागो। विधा के निकल जाने पर रावण अपने असली रूप में आ गया। तब उसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर हजार मारों वाले चक्ररत्न को स्मरण किया। स्मरण करते ही सुदर्शनचक्र उसके हाथ में पा गया। तब रावण लक्ष्मण से बोला-'अब भी तू माकर मुझे नमस्कार कर, अन्यथा मारा जायेगा। लक्ष्मण हंसकर बोला-इस कुम्हार के चाक पर तुझे इतना अभिमान है !' यह सुनते ही रावण ने चक्ररत्न की पूजा कर उसे लक्ष्मण पर फेंका। इसी बीच राम ने मय को बांध कर रथ में डाल लिया और वे लक्ष्मण की पोर आये। सबने बाग की ज्वालाओं के समान आते हए चक्र को देखा । लक्ष्मण ने बवमयी बामों से को रोकने का प्रयत्न किया, राम बजावर्त धनुष और हल लेकर, सुग्रीव गदा से, भामण्डल तलवार में विभीष्म त्रिशूल से, हनुमान मुद्गर से, नील वजदण्ड लेकर और अंग अंगद कुठार लेकर उसे रोकने लगे। किन्तु वह देवाधिष्ठित चक्र किसी के रोके न रुका। वह माया और लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणा देकर लक्ष्मण की अंगुली पर ठहर गया।
लक्ष्मण की अंगुली पर टिके हुए चक्ररत्न को देखकर बानरवंशी विद्याधर हर्ष से नाचने लगे और कहने लगे-वास्तव में ही ये दोनों भाई बलभद्र और नारायण हैं। रावण चक्र को लक्ष्मण के पास देखकर मन में कहने लगा-इस क्षणस्थायी लक्ष्मी को धिक्कार है । वे भरत आदि महापुरुष धन्य हैं, जो इस लक्ष्मी को त्याग कर मोक्ष को प्राप्त हुए। मैं जीवन भर विषयों में ही लिप्त रहा। रावण यह सोच ही रहा था कि लक्ष्मण ने गरज कर रावण से कहा-'रावण! तू समझदार है । सब भी सीता राम को सौंप दे। सीता राम को देकर उनके चरणों में प्रणाम कर और प्रानन्दपूर्वक राज्य कर।' यह सुनकर रावण क्रोध से बोला-'यह चक्र चला गया तो क्या हमा, अभी मेरी शक्ति सरक्षित है । देखता क्या है, चक्र चला।' रावण की यह दर्पोक्ति सुनकर लक्ष्मण ने बड़े जोर से धमाकर चक्र रावण को मारा । रावण ने उसे रोकने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु अब उसका पुण्य क्षीण हो गया था। चक्र ने रावण के वक्षस्थल को चीर डाला। हृदय के भिदते ही रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। रावण के मरते ही उसकी सेना भाग खड़ी हुई। उसे भागते देखकर हनुमान ने अभयघोषणा करते हुए कहा-आप लोग डरें नहीं, राम को प्राज्ञा शिरोधार्य कर सुख से रहें।
रावण को मरा हुआ देखकर विभीषण आत्महत्या के लिए तैयार हो गया, किन्तु राम ने उसे रोका। वह गया। होश में आने पर वह रावण की लाश के पास बैठकर विलाप करने लगा । जब यह समाचार लंका में