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जन गर्म का प्राचीन इतिहास
यह देखकर रावण को पश्चाताप हुआ और वह मन में अपने को धिक्कारता हुग्रा कहने लगा-मुझ पापी ने व्यर्थ ही इस शील शिरोमणि सीता का अपहरण करके लोकनिद्य काम किया और अपने पवित्र वंश में अकीतिकालिमा लगाई। मैंने अपने बुद्धिमान भाईविनाषण की बात नहीं मानी। यदि उसकी बात मान कर मैं सोता को वापिस कर देता तो लोक में मेरी प्रशंसा होती। किन्तु अब तो वह अवसर जाता रहा। यदि इस समय मैं सोता को वापिस करूंगा तो लोग मुझे कायर कहेंगे । अब तो मेरे लिए एक ही मार्ग है । मैं युद्ध कर्म और राम लक्ष्मण को जीवित पकड़ कर सीता के निकट लाऊं और उन्हें सीता को सौंप कर वस्त्राभूषण से उनका सन्मान करूं। इससे लोक में मेरो प्रशंसा होगी तथा मैं पाप से भी बच जाऊंगा । किन्तु इन वानरवंशी विद्याधरों को नहीं छोड़ेगा 1 उस अगद का तो मैं अवश्य बध करूंगा, जिसने मेरी रानियों का अपमान किया है और वह सुग्रोव, भामण्डल, हनुमान इनको भी मारूंगा। इन्होंने मुझसे विद्रोह किया है।
इस प्रकार विचार कर वह दापिस महलों में पहुंचा। तभी अनेक प्रकार के अपशकुन होने प्रारम्भ हो गए- प्रासन हिलने लगा, दसों दिशायें कंपायमान होने लगों, उल्कापात हा, गोदड़ियाँ रुदन करने लगीं । यक्षों की मूति से अश्रुपात होने लगे । रुधिर की भी वर्षा हुई । और भी इसी प्रकार के अनेक अपशकुन हुए।
प्रात:काल होने पर रावण राज दरबार में गया। अनेक वीर राजा भी बैठे हुए थे। किन्तु वहाँ
प्रातःकाल हान कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत और मेघनाद को न देखकर रावण बड़ा दुःखो हो गया। उसका मुख-कमल मुर्भा मय। । फिर
उसे क्रोध आया, नेत्र लाल हो गए, नथ ने फड़कने लगे। वह वहाँ से उठ कर अपनी रावण की प्रायुधशाला में गया । उसी समय पूर्व दिशा में छींक हुई, आगे बढ़ा तो भयंकर कालनाग मार्ग मय
रोके खड़ा दिखाई दिया। हवा से छत्र का वंडूर्यमणि का दण्ड भग्न हो गया और उत्तरासन गिर पड़ा। दाहिने हाथ पर कौआ बोला । इन अपशकुनों से सबको अनिष्ट की अाशंका हो गई। तब मन्दोदरी ने चिन्तित होकर मंत्रियों से कहा-तुम लोग महाराज के हित को बात उनसे स्पष्ट क्यों नहीं कहते । कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत और मेघनाद बन्धन में पड़े हुए हैं। तुम उन्हें युद्ध से रोको ।' तब मन्त्री बोले. 'स्वामिनी! हमने सब प्रयत्न करके देख लिए । किन्तु महाराज हमारी एक नहीं सुनते । शायद आपकी बात मान लें। तब मन्दोदरी रावण के पास पहुंची
और बड़ी विनय से बोली-माथ! युद्ध में जाते समय अनेक अपशकून हो रहे हैं। अतः आप युद्ध का विचार छोड़ दीजिये और सीता राम को देकर शान्ति के साथ रहिए । साथ हो राम से कह कर कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत, मेघनाद मादि को बन्धन से छुड़ाइये। राम और लक्ष्मण बलभद्र नारायण के रूप में पंदा हुए हैं और पाप प्रतिनारायण हैं । मन्दोदरी की बातें सुनकर रावण को क्रोध आ गया। बोला --तुम क्यों डरती हो। उन भिखारियों को बलभद्रनारायण बता रही हो । वे तो पेट भरने के लिए फिर रहे हैं। तुम कैसी क्षत्रिय कन्या हो, जो मृत्यु से डरती हो।'
युद्ध के लिये चलते समय रावण ने अपने कुटुम्बी जनों से क्षमा मांगी तथा अपनी रानियों से भी कहा - 'देवियो! में युद्ध के लिये जा रहा है। पता नहीं फिर आप मिलें या नहीं। मैंने हँसी में या क्रोध में यदि कोई अपशब्द कह दिया हो तो उसे मेरा प्रेमोपहार समझना। रावण ने पुनः पुनः सबका प्रेमालिंगन किया । फिर रणभेरी बजवाई। रणभेरी की आवाज सुनते ही सब भट अपने परिवार से विदा होकर रावण के पास प्रामये । रावण ने बहुरूपिणी विद्या के द्वारा इक्कीस स्लण्ड का एक रथ बनाया। उसमें एक हजार हाथी जुते हुए थे। वह उस रथ में मय, मारीच, सार, सुक प्रादि मन्त्रियों के साथ बैठकर चला। उसके पीछे अगणित योद्धा विविध शस्त्रास्त्र लेकर विचिध वाहनों में चल रहे थे । चलते समय धुएं वाली अग्नि, कीचड़ में सना हुआ तेल का बर्तन, बिखरे हुए बालों वाले मनुष्य इत्यादि अनेक शोकसूचक अपशकून हए । इन्हें देखकर भो यह अभिमानी लौटा नहीं।
शत्रु संन्य को देखकर राम भी सिंहरथ में आरूढ़ होकर चल दिये। उसके पीछे लक्ष्मण, भामण्डल, नल, मील, सुग्रीक, हनुमान प्रादि भी चले । रावण को हजार हाथियों वाले रय पर गाना देख कर लक्ष्मण भी गाड़ी रथ पर शस्त्रास्त्रों से सजकर बैठ चले। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध छिड़ गया। मारीच आदि राक्षसों द्वारा बानर सेना का विनाश होता हंसा देखकर हनुमान और नील राक्षसों पर झपटे । तब मय दैत्य हनुमान के सामने प्राया। हनुमान ने उसे छह बार रंधरहित कर दिया। तब रावण ने अपनी विद्या द्वारा रथ बना कर मय को दिया।