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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
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पहुँचा तो मंदोदरी प्रादिरानियां आकर वहां विलाप करने लगीं, वे अपना सिर धुनने लगी, कोई छाती कटने लगी। उसकी लाश के चारों ओर बैठकर उसकी अठारह हजार रानियाँ रावण का सिर गोद में रखकर जोर-जोर से विलाप करने लगी। तब राम, लक्ष्मण आदि वहाँ माये भौर विभीषणादि को देखकर कहने लगे-रावण धन्य है जो युद्ध में वीरतापूर्वक मारा गया । इसमें शोक मनाने की क्या प्रावश्यकता है। फिर राम ने मन्दोदरी आदि रानियों को भी समझाया। बाद में वामरवंशियों और राक्षस-वंशियों ने मिलकर पदम सरोवर के तट पर चंदन कपूर मादि से चिता बनाई और रावण का दाह-संस्कार किया। फिर राम की प्राशा से कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत, मेघनाद, मय मादि को सुभट बन्धनों में बांधकर लाये। राम ने उन्हें बन्धनमुक्त करते हुए कहा-'पब माप लोग स्वतन्त्र हैं, प्रसन्नतापूर्वक अपना राज्य संभालें । में तो सीता को लेकर यहाँ से चला जाऊंगा।' तब उन सबने उसर दिया—'अब हमें इस राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है।' राम बोले-'माप धन्य हैं, जो आत्म-कल्याण का प्रापने विचार किया।
उसी दिन कुसुम नामक बम में मुनिराज की सवलज्ञान हुआ। देवों ने उनका ज्ञान महोत्सव मनाया। यह सुनकर वानरवंसियों और राक्षसवंशियों के साथ राम समवसरण में पहुंचे और केवली भगवान की स्तुति, वन्दना यौर पूजा कर समवसरण में बैठ गये । भगवान का उपदेश हुआ। भगवान का उपदेश सुनकर इन्द्रजीत, मेघनाद, कुम्भकर्ण प्रादि ने मुनिदीक्षा लेलो तथा मन्दोदरी प्रादि रानियाँ प्रायिका बन गई। इन्द्रजीत, मौर मेघवाहन तपस्या करके चूलगिरि (बड़वानी) से मुक्त हुए। रेवा नदी के किनारे विध्य पर्वत पर इंद्रजीत के साथ मेघवाहन मुनि ने तपस्या की थी। अतः वह तीर्थ कहलाने लगा । कुम्भकर्ण रेवा के किनारे मक्त हए ।
श्री रामचन्द्र जी ने रैलोक्य अम्बर हाथी पर आरूढ होकर विद्याधरों के साथ गाजे बाजे के साथ लंका में प्रवेश किया। लंका की विशेष शोभा की गई थी। रामचन्द्र जी राजमार्ग पर होकर निकले। वे प्रशोक उद्यान में
पहुँचे, जहाँ सीता दासियों के बीच में बैठी हुई थी। राम को देखकर सीता बड़ी पुलक के राम का संका में साथ उठी । राम धूलधूसरित सीता को देखकर हाथी से उतर पड़े। सोता ने आगे बढ़कर
प्रवेश मौर राम के पैर छुए, राम ने बड़े हर्ष से उसे छाती से लगा लिया। फिर सीता राम के प्राये अयोध्या-गमन हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। तभी लक्ष्मण ने मागे बढ़कर सीता को प्रणाम किया। सीता ने
उसे थाशीर्वाद दिया। इसके बाद भामण्डल ने सीता को सब विद्याधरों का परिचय कराया। सीता ने सबको पाशीर्वाद दिया। उसके बाद रामचन्द्र जी सीता के साथ हाथी पर सवार होकर तथा अन्य विद्याधर अपनी-अपनी सवारियों पर प्रारुढ़ होकर रावण के स्वर्ण प्रासाद में पाये। वहाँ शान्तिनाथ जिनालय को देखकर सब लोग उतर पड़े और सबने भगवान के दर्शन किये। फिर पूजन किया। रामचन्द्र जी ने वीणा बजाई, सीता नत्य करने लगी। वहां से सब लोग सभा मण्डप में आये। विभीषण महल में जाकर सुमाली, माल्यवान, रत्नश्रवा मादिको राम के पास ले पाया। राम ने सबको बराबर यासन पर बैठाकर सबक्य समचित सम्मान किया और सान्त्वना दी। फिर विभीषण ने राम को भोजन का निमन्त्रण दिया। सब लोग उठकर विभीषण के महलों में भोजन के लिए गये। राम, सीता आदि को तैलादि मर्दन कर स्नान कराया, सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कराये मोर स्वादिष्ट भोजन कराया । फिर सबको यथायोग्य स्थानों पर ठहराया। राम सीता के साथ तथा लक्ष्मण विशल्या के साथ सुन्दर प्रासादों में ठहरे।
एक दिन विद्याधरों ने तीन खण्ड के राजसिंहासन पर राम-लक्ष्मण का अभिषेक करने की अनुमति मांगी। किन्त राम ने कहा-हमारे पिता ने राजसिंहासन हमारे भाई भरत को दिया है, अतः राजा वही है। हम उन्हीं की प्राज्ञा का पालन करेंगे। वे ही हम सबके मालिक हैं। फिर भी विद्याधरों ने 'त्रिखण्डाधिपति राम-लक्ष्मण की जय बोलकर उनके ऊपर छत्र लगा दिया। राम-लक्ष्मण दोनों भाई छह वर्ष तक लंका में रहे। एक दिन नारद अयोध्या गये। वहीं अपराजिता (कोशल्या) से उन्हें
राजिनाकोठाल्या से उन्हें राम का निर्वासन, राम-रावणवट पादि के बारे में समाचार ज्ञात हए। वे तेतीस बर्ष बाद इधर पाये थे। अतः उन्हें इधर के कोई समाचार ज्ञात नहीं थे। रानी नारद को समाचार सुनाते सुनाते फूट-फूट कर रोने लगी। नारद को रानी के इस दुःख से बड़ा दुःख