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जैन रामायण
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कि हम तुम दोनों ने दण्डक वन में चारण मुनि को बाहार दान दिया था, वंशगिरि पर्वत पर हम लोगों ने मुनियों का उपसर्ग दूर किया था और जब उस दुष्ट कपिल ब्राह्मण ने तुम्हें जल नहीं दिया था, तब मैंने तुम्हें रामगिरि में जल पिलाया था। जब तुम लौटो तो सीता का चूड़ारत्न ले आना ।'
हनुमान ने कहा- 'देव ! ऐसा ही करूंगा ।' और राम के चरणों में नमस्कार कर सब विद्याधरों से कहाजब तक में लौट कर वापिस न आऊँ, तब तक आप लोग यहीं रहना और इन दोनों महापुरुषों की सेवा करना ।' यह कह कर हनुमान वहाँ हो सेना सहित सानन्द विदा हुआ। मार्ग में उसे महेन्द्रपुर नगर दिखाई दिया जो उसकी ननिहाल थी । उसे देख कर हनुमान को बड़ा क्रोध आया कि जब में पेट में था, तब मेरे नाना ने मेरी माँ को बड़ा दुःख दिया था। अतः क्रोध में भर कर हनुमान ने रणभेरी बजा दी। दोनों ओर की सेनाओं में घोर युद्ध हुआ । अन्त में हनुमान ने अपनी लांगूल विद्या से महेन्द्र को बांध लिया। तब मंत्रियों ने उन्हें छुड़ाया । नाना और देवता तब प्रेम से मिले । राजा महेन्द्र ने अपने क्षेत्र का बड़ा सम्मान किया । चलते समय हनुमान ने कहा- आप अपने पुत्रों और सेना को लेकर शीघ्र रामचन्द्र जी के पास पहुँच जायँ ।
इसके पश्चात् हनुमान मार्ग में अपनी माता से मिला। आगे बढ़ने पर हनुमान ने देखा कि उदधिनामक द्वीप पर दधिमुख नगर के पास बन जल रहा है और उसमें दो चारण मुनि तपस्या कर रहे हैं। हनुमान ने बड़ी भक्ति और करुणा से अपनी विद्या द्वारा वहाँ जल बरसा कर अग्नि को शान्त किया और मुनि चरणों की पूजा को । उपसर्ग दूर होते हो तीन कन्याओं को विद्या सिद्ध हो गई। वे तीनों दधिमुख नगर के गंधर्व राजा की पुत्रियाँ थीं । जिनके नाम चन्द्ररेखा, विद्यु स्भा और हरंगमाला थे । उन्होंने आकर पहले तो मुनियों की वन्दना की, फिर हनुमान को नमस्कार किया । हनुमान के पूछने पर उन कन्याओं ने बताया कि हमारे पिता ने एक अवधिज्ञानी मुनि से पूछा या कि हमारा पति कौन होगा । तब उन्होंने कहा था कि जो साहसगति को मारेगा, वही इनका पति होगा। उधर अंगारकेतु विद्याधर हमें चाहता था। हम मुनि के बचनों पर विश्वास करके मनोनुगामिनी विद्या सिद्ध करने बारह दिन पहले इस बन में तपस्या करने थाई थीं और ये मुनि आठ दिन पहले पाये थे। तब अंगारकेतु ने बड़े उपसर्ग किये और उसी ने बन में श्राग लगादी। उपसर्ग के कारण हमें वारह वर्ष में सिद्ध होने वाली विद्यायें बारह दिन में सिद्ध हो गई | आपने ग्राग बुझाकर मुनिराज और हमें जलने से बचा लिया ।'
हनुमान ने कन्याओं की प्रशंसा करते हुए रामचन्द्र जी का सारा वृत्तान्त सुनाया। यह समाचार गन्धर्व राज के पास पहुँचा तो वह नगरवासियों के साथ वहाँ आया और हनुमान से मिलकर कन्याओं को लेकर सेना सहित रामचन्द्र जी के पास चल दिया और वहाँ जाकर कन्याओं का विवाह रामचन्द्र जी के साथ कर दिया।
हनुमान चला जा रहा था कि उसको सेना एक मायामई यन्त्रनिर्मित परकोटे से रुक गई। जब हनुमान को यह ज्ञात हुआ कि यह सब रावण की सुरक्षा के लिये भारी तैयारी है तो हनुमान ने कुछ देर में ही उस परकोटे के खण्ड-खण्ड कर दिये और शालिविद्या का हृदय भेद दिया। जब इस फोट के रक्षक बज्रमुख को, जिसने रावण की प्रजा से इस वोट का निर्माण किया था - पता चला कि कोट ध्वस्त कर दिया है, वह हनुमान से सेना सहित लड़ने आया। दोनों में युद्ध हुआ। अन्त में हनुमान ने उसे मार दिया। तब उसकी पुत्री लंकासुन्दरी युद्ध के लिये श्राई । किन्तु हनुमान का मोहन रूप देखकर उस पर मोहित हो गई और सन्धि कर ली ।
वहाँ से चलकर हनुमान सर्वप्रथम न्यायशील विभीषण के घर पर गया। दोनों परस्पर गले मिले। फिर हनुमान ने विभीषण से कहा- 'राजन् ! आपके भाई ने परस्त्री हरण करके बड़ा लोक निद्य कार्य किया है। आप उन्हें इस काम से रोकिये, नहीं तो व्यर्थ जल-नन हानि होगी ।' विभीषण बोला- मैंने उन्हें बहुत समझाया बुझा हैं, किन्तु वे मेरी एक नहीं सुनते। सीता को शारह दिन भोजन छोड़े हुए हो गये हैं किन्तु उन्हें दया नहीं आती। श्राप जाकर सीता को समझा कर भोजन कराइये। मैं तब तक रावण को समझाता हूँ ।'
हनुमान यह सुनकर अशोक उद्यान में पहुँचा और अशोक वृक्ष के नीचे जहाँ सीता बैठी हुई थी, वहाँ पहुँचा । उसने दिखा- सीता अपने हाथ की बायीं हथेली पर गाल टेके हुए हैं, प्रांखों से आंसू भर रहे हैं। गर्म गर्म श्वास निकल रहे हैं, बाल निखरे हुए हैं और राम का ध्यान कर रही है। हनुमान ने समझ लिया कि राम क्यों इसके गुणों