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बैन-रामायण
यह देखकर राम और सीता को बड़ा ग्राश्चर्य हुआ। उन्होंने मुनि महाराज से इसका कारण पूछा तो अवधिज्ञानी मुनि बोले-पहले इस वन के स्थान पर एक सुन्दर नगर था। उसका नाम था कार्यकुण्डल । वहाँ का राजा दण्डक था, उसकी रानी मस्करी थी। दोनों विषयलम्पटी और सद्धर्म के विरुद्ध थे। एक दिन राजा ने बन में एक मुनि को ध्यान करते हुए देखा। उसने उनके गले में एक मरा हुमा सर्प डाल दिया । कुछ दिनों के बाद एक मनुष्य उधर से निकला। उसने मुनि के गले से बह सर्प हटा दिया। सर्प के विष के कारण मुनि का शरीर काला धीर चिपचिपा हो गया था। तभी वहां वह राजा प्रा निकला। उसने देखा कि मैंने मूनि के गले में जो सर्प डाला था, उसको मुनि ने स्वयं नहीं हटाया है। यह देखकर वह मुनिभक्त वन गया और उसने जैन धर्म अंगीकार कर लिया। इससे रानी को बड़ा बुरा लगा। वह राजा को जैन धर्म से हटाने का उपाय सोचने लगी। एक दिन एक मुनि आहार के निमित्त राजद्वार पर पाये । रानी ने उनके ऊपर झूठा अपवाद लगाकर राजा से शिकायत कर दी। राजा को बड़ा क्रोध माया । उसने सारे दिगम्बर मुनियों को पानी में पेरने की प्रामा दे दी। राजाज्ञा से सारे दिगम्बर मुनि जो वहाँ थे, पानी में पेर दिये गये । एक मुनि बाहर गये हुए थे । जव बे नगर की ओर आ रहे थे तो मार्ग में एक व्यक्ति ने उनसे मुनियों के पानी में पेरने का समाचार सुनाया। सुनकर उन मुनि को बड़ा . दुःख हुमा पीर अत्यन्त क्रोध भी माया । भयंकर श्रोध के कारण उनको बाईं भुजा से कालाग्नि के समान एक अशुभ तजस पूतला निकला । उसने सारे नगर को भस्म कर दिया। उससे कोई मनुष्य-पशु-पक्षी तक नहीं बचा। राजा भी उसो में भस्म हो गया। राजा नरक में गया, मुनि भी चिरकाल से उपाजित धर्म को नष्ट करने के कारण नरक में गये । राजा अनेक योनियों में भ्रमण करते-करते अन्त में यह गद्ध पक्षी बना है। इसे हमें देख कर अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया है और वह अपने किये हुए पापों का प्रायश्चित कर रहा है। धीरे-धीरे नगर के भरम के स्थान पर यह वन लग गया। उस दण्डक राजा के नाम पर ही इस वन का नाम दण्डक-वन या दण्डकारण्य पड़ गया है।
इसके पश्चात् मुनिराज ने उस गद्ध पक्षी को उपदेश दिया। फलत: उस पक्षी ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये. जीव हिंसा का त्याग कर दिया। तब मुनियों ने उस पक्षी को सीता के हाथ में पालन-पोषण के लिये सौंप दिया मोर वे विहार कर गये।
तभी हाथी पर सवार होकर लक्ष्मण पाये। उन्होंने पक्षी को देख कर उसके बारे में पूछा। राम ने मनि के माहार-दान और पक्षी के बारे में सारी बातें बताई। सबने बैठकर फिर भोजन किया और तीनों ने मिलकर उस पक्षी का नाम 'जटायु' खखा । वे लोग उस वन की शोभा देखकर वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे।
अब रामचन्द्र जी विचार करने लगे कि यहाँ एक सुन्दर नगर बसा कर यहीं पर निवास किया जाय तथा माताओं को भी यहीं बुला लिया जाए। एक दिन वे लक्ष्मण से बोले-'वत्स ! देखो तो यहाँ नगर बसाने के लिये
कौन-सा स्थान उपयुक्त रहेगा । लक्ष्मण धनुष-बाण लेकर स्थान की खोज में चल दिये। कुछ सीता का दूर जाने पर उन्हें सुगन्ध पाई। प्रागे बढ़े तो बांसों के झुरमुट में एक लटकती हुई तलवार अपहरण दिखाई दी। उन्होंने बड़े उत्साह से वह तलवार हाथ में ले ली और उसकी तीक्ष्णता को
परीक्षा करने के लिये उन्होंने वह तलवार उसो बासों के झुरमुट पर फिराकर मारो। बांसों के झुरमुट के साथ वहाँ किसी का सिर भी कट गया । उसे देखकर लक्ष्मण को बड़ा दुःख हुमा। वे तलवार हाथ में लेकर रामचंद्र जी के पास गये और बड़े दुःख भरे शब्दों में उनसे सारा वृत्तान्त निवेदन कर दिया । राम विचार कर बोले-यह किसी विद्याधर का सिर तूने काट दिया है। अतः यहाँ कुछ अनर्थ होने की संभावना है । प्रद सावधान रहना चाहिये।
प्रलंकारपुर के राजा खरदुषण और (रावण की बहन) चन्द्रनखा के दो पुत्र थे-संवूक और सुन्दर । एक दिन संदक ने पिता के मना करने पर भी सूर्यहास तलवार सिद्ध करने के लिये दण्डक-वन में प्रवेश किया और बांसों
कर ब्रह्मचर्य व्रत लेकर दिन में केवल एक बार भोजन और एक वस्त्र पहनकर धूप-दीप प्रादि से मर्चना करता हुआ सूर्यहास तलवार की सिद्धि के लिये बैठ गया। उसकी माता चन्द्रनखा प्रति दिन दोपहर को पुत्र