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जैन-रामायण
चातुर्मास के पश्चात जब वे लोग रामपुर से चलने लगे तो यक्ष ने क्षमा-याचना करते हुए राम को स्वयंप्रभ नामक एक सुन्दर हार दिया । लक्ष्मण को कानों के देदीप्यमान कुण्डल दिये और सीता को सकल्याण नाम का एक चूडामणि रत्न दिया और एक सुन्दर वीणा दो। वहाँ से विदा होकर वे भयानक वनों में से होते हुए विजयपुर नगर के बाहर उद्यान में ठहरे।
उस नगर के राजा पृथ्वीधर की सुन्दरी कन्या बनमाला बचपन में लक्ष्मण को प्रशंसा सुनकर उनके प्रति अनुरक्त हो गई थी और उन्हें मन में पति मान लिया था। जब राजा पृथ्वाधर ने सुना कि राजा दशरथ के दोक्षा लेने पर राम-लक्ष्मण और सीता कहीं वन में चले गये हैं तो उसने वनमाला का विवाह इन्द्रनगर के राजकुमार बालमित्र के साथ कर देना चाहा । जब बनमाला को यह ज्ञात हुया तो उसने किसी परपुरुष के साथ विवाह न करने और पेट से लटककर गले में फांसी लगाकर मर जाने का निश्चय कर लिया। सर्यास्त होने पर वह माता पिता से आज्ञा लेकर सखियों के साथ रथ में बैठकर बनदेव का पूजा करने के लिबन में चल हो। देखयोग से जिस बन में जिस रात को राम-लक्ष्मण ने विश्राम किया था, उसो रात को उसो घन में वह पदची। उसने वनदेवी की पूजा की और सखियों से आंख बचाकर चुपचाप वहाँ से चल दी। माहट पाते ही लक्ष्मी बैठे मोर पासी प्रानभासकासव उसका अनुसरण करने लगे कि देख, यह क्या करती है। एक वक्ष की प्रोट में खड़ हो गये । वनमाला चलती-चलती उसी वृक्ष के पास पहुंची और एक कपड़ा वक्ष से बाँध कर बोली- इस वक्ष पर रहने वाले हे देवताओ! यदि कभी इस बन में घूमते हुए कुमार लक्ष्मण पावें तो तुम उनसे कह देना कि वनमाला तुम्हारे विरह में मरगई। इस जन्म में तो तुम नहीं मिल पाये किन्त अगले जन्म में तम्हीं मेरे पति होना ।' यों कहकर वह अपने गले में फन्दा बाँधन को तयार हई त्योहो लक्ष्मण ने उसे रोककर कहा—'सुन्दरि! जिस गल में मेरी बाहे पड़नी चाहिये, उसमें तुम फॉसी क्यों डाल रही हो। मैं हो वह लक्ष्मण हैं।' यह कहकर लक्ष्मण ने उसके हाथ से फांसी छीन ली और उसे प्रालिंगन में भर लिया।
प्रभात होने पर जब रामचन्द्र जी उठे और लक्ष्मण को वहाँ नहीं देखा तो बे अधोर हो उठे और लक्ष्मण को मादाज देने लगे। लक्ष्मण फौरन बनमाला के साथ वहाँ प्राया। उन्हें नमस्कार किया और रात को सारी घटना कह सुनाई।
उधर जब सखियों ने बनमाला को न देखा तो वहां कोहराम मच गया। राजा के पास समाचार पहुंचा। राजा और रानी वहाँ पाये जहाँ श्रीराम बैठे हुए थे। उन्हें नमस्कार कर वह बैठ गया। राजा ने उनसे राजमहलों में पधारने की प्रार्थना की। सब लोग हाथी पर ग्रारूढ़ होकर राजप्रासाद पहुंचे । वहाँ धमधाम के साथ वनमाला का विवाह लक्ष्मण के साथ कर दिया।
एक दिन राजा पृथ्वीघर राम-लक्ष्मण के साथ राजदरबार में बैठा हुआ था, तभी एक दूत वहां माया मौर राजा से निवेदन किया-'महाराज ! नन्द्यावर्त के राजा प्रतिवीर्य ने सेना सहित आपको बुलाया है।' राजा ने उससे बुलाने का कारण पूछा तो दूत बोला-'महाराज प्रतिवीर्य ने अयोध्या के राजा भरत को सन्देश भेजा था किया तो तुम मरी प्राधीनता स्वीकार करो अन्यथा युद्ध के लिये तैयार रहो। शत्रुघ्न ने दूत को अपमानित करके निकाल दिया। जब राजा यतिवोर्य ने यह सुना तो वे अंग, बंग, तिलंग देश के म्लेच्छ राजाओं को लेकर अयोध्या पर अाक्रमण करने चल दिये । राजा भरत भी प्रवन्तो और मिथिला के राजाओं के साथ चलकर नर्मदा के तट पर प्रा हटा। रात में शत्रुधन ने हमारे चौसठ हजार घोड़े चुपचाप खोल दिये । इस पर पतिवीर्य महाराज ने विभिन्न देशों के राजाओं को बुलाने के लिये दूत भेजे हैं। अतः माप भी वहाँ शीघ्र पहुंचे।
रामचन्द्र जी को यह सुनकर बड़ी चिन्ता हुई । वे लक्ष्मण से बोले-'वत्स ! अतिवीर्य बड़ा बलवान और प्रसस्य सेना का अधिपति है। भरत के पास सेना कम है। अतः भरत हार जायगा। हमें भरत की सहायता करनी है फिन्त छदमवेश में रहकर जिससे किसी को हमारा पता न चले।' उन्होंने राजा पृथ्वोधर से भी अपना अभिप्राय प्रगट किया। पृथ्वीधर.राम-लक्ष्मण और सीता सहित प्रपनी सेना लेकर चल दिया पौर जाकर भतिवीर्य से मिले। सीता को तो राम ने एक जिन मन्दिर में श्वेत वस्त्र पहनाकर प्रायिका के निकट ठहरा दिया और भगवान के दर्शन कर प्रतिवीर्य के पास पहुंचे। वहाँ कौशल से लक्ष्मण ने पतिवीर्य को बन्दी बना लिया। सब राजा भयभीत हो गये।