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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
नामक एक पापी राजा रहता था। उसे एक दिन एक मुनिराज मिले। उनके उपदेश को सुनकर राजा ने उनसे श्रावक के व्रत ग्रहण किये और प्रतिज्ञा की कि मैं देव, गुरु और शास्त्र के नियम फिसो गोलमकारकहीं काँगा
प्रतिज्ञा करके वह अपने नगर को लौट गया। उसने अपनी अंगूठी में जिन-प्रतिविम्ब जड़वा रखा है। उसकी बह प्रतिदिन पूजा करता है। एक दिन वह उज्जयिनी गया । वहाँ के राजा सिहोदर को नमस्कार करने के बहाने मुद्रिका स्थित जिन-बिम्ब को ही नमस्कार किया। यह बात किसी दुष्ट पुरुष ने भांपलो मौर बाद में सिहोदर से शिकायत कर दो। सिंहोदर को बड़ा क्रोध आया और उसने दशपुर से वजकर्ण को बुलवाया। जब वह उज्जयिनी जाने को तैयार हुआ तो एक व्यक्ति ने उसे सिहोदर का दुरभिप्राय समझाया, जो उसने सिहोदर के महलों में चोरी के लिये जाने पर सिहोदर के मुख से ही सुना था। बचकर्ण उसकी बात पर विश्वास करके किले में लौट गया : कुछ समय पश्चात् सिहोदर अपनी सेना लेकर उसे मारने पाया। किन्तु किले को दुर्भद्य और अजेय जानकर उसने बजकर्ण के पास दूत भेजा 1 दूत ने जाकर कहा-'महाराज! सिहोदर ने कहा है कि मेरे दिये हुए राज्य का तू उपभोग करता है और मुझे नमस्कार न करके अपने भगवान को नमस्कार करता है। अतः त पाकर मझे प्रणाम कर अन्यथा तुझे मार डाला जाएगा।' बजकर्ण ने दूत से स्पष्ट कह दिया—'मैं धर्म नहीं छोड़ सकता हूं राज्य छोड़ सकता है। यदि चाहें तो सिहोदर अपना राज्य वापिस ले लें। दूत ने यह बात सिंहोदर से जाकर कह दी। इससे वह और भी जल भन गया और क्रोध में आकर उसने सारा नगर उजाड़ दिया, घरों में भाग लगवादी, मनुष्यों को मार दिया। इस नगर के सुनसान होने का यह कारण है। रामचन्द्रजी ने उस दरिद्र को अपना रत्नहार दे दिया, जिसे लेकर वह प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से चला गया।
रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण से कहा-लक्ष्मण ! वजकर्ण धर्मात्मा है। उसकी रक्षा करनी चाहिये । रामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर लक्ष्मण बनूष-बाण लेकर सिहोदर के दरबार में पहुँचे । सिंहोदर ने पूछा-'तु कौन है? लक्ष्मण बोले-'मैं भरत का दूत हूँ। तुझे समझाने पाया हूँ। तुने धर्मात्मा वजकर्ण को क्यों कष्ट दे रक्खा है। सिहोदर क्रोध में बोला-कौन भरत, कहाँ का भरत ! बचकर्ण मेरा शत्रु है । वह मुझे नमस्कार नहीं करता, अपने भगवान को नमस्कार करता है। इसे में बिना मारे छोड़ेगा नहीं। अगर भरत या तूने बीच में टांग पड़ाई तो तुम्हें भी मारूंगा।' लक्ष्मण को यह सुनकर क्रोध या गया। दोनों ओर से युद्ध होने लगा । लक्ष्मण ने अाननफानन में सिहोदर को जीत लिया और मुश्के बांधकर रामचन्द्र जी के पास ले आये। सिहोदर रामचन्द्र जी के पैरों में गिर पड़ा । उसकी रानियां भी पति के प्राणों की भिक्षा मांगने लगीं। तब रामचन्द्र जी ने कहा-'तुम वचकर्ण की प्राज्ञा में रहो।' सिहोदर ने यह बात स्वीकार कर ली। तब रामचन्द्र जी ने वज्रकर्ण को बुलाने एक पादमी भेजा । बचकर्ण भगवान के मन्दिर में जाकर और उनको नमस्कार करके रामचन्द्र जी के पास आया। दोनों में कुशल-क्षेम हुई। फिर रामचन्द्र जी और लक्ष्मणजी ने बचकर्ण को खूब प्रशंसा को मोर उससे कुछ इच्छा प्रगट करने के लिये कहा । बजकर्ण ने कहा...पाप सिहोदर को मुक्त कर दीजिये । लक्ष्मण ने तुरन्त उसे मुक्त कर दिया। तब बजकर्ण और सिहोदर दोनों गले से मिले और सिहोदर ने उज्जयिनी का प्राधा राज्य बजकर्ण को दे दिया और दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।
___ इसके कुछ दिन पश्चात् राम वहाँ से नलकच्छपुर में पहुँचे । वहाँ की राजकुमारी कल्याणमाला जो सदा पुरुषवेष में रहती थी, वह जंगल में लक्ष्मण को देखकर मोहित हो गई। वह राम के निकट पाई । उसने बताया कि
"उसके पिता बालखिल्य को म्लेच्छ राजा ने बन्दी बना लिया है। लक्ष्मण भी उसे देखकर लक्ष्मण को कामासक्त हो गये। उन्होंने उसके पिता को म्लेच्छों से छडाने का वचन दिया। कुछ दिन बनमाला का लाभ बाद वे लोग चलकर विन्ध्याटवी पहुँचे और म्लेच्छों से युद्ध कर लक्ष्मण ने म्लेच्छराज
रौद्रभूति के कारागार से वालखिल्य को मुक्त किया और रौद्रभूति को उसका मंत्री बनाया। फिर वे स्वानदेश में पहुंचे। वहाँ जंगल में वे लोग ठहरे हुए थे । उन्हें देखकर यक्षाधिपति ने उनके लिए सभी सुविधाओं से युक्त रामपुर नामक नगर बनाया । वे वहाँ रहने लगे । एक दिन दरिद्र कपिल ब्राह्मण यहाँ प्राया। उसने एक बार सीता का अपमान किया था, जब वे लोग उसकी यज्ञशाला में ठहरे थे। किन्तु रामचन्द्र जी ने उसे विपुल द्रव्य देकर विदा किया।