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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
लगे कि राज्य-भार पुत्र को सौंपकर अब मुझे मुनि बन जाना चाहिये । एक दिन मंत्रियों को बुलाकर दशरथ ने कहा
मैं राम का राज्याभिषेक करके मुनि-दीक्षा लेना चाहता हूँ। अत: तुम लोग राज्याभिषेक राम का वनवास की तैयारियां करो।' रानियों ने बहुत समझाया किन्तु दशरथ अपने निश्चय पर अडिग रहे।
राज्याभिषेक की तैयारियां होने लगीं। भरत का मन भी भोगों में नहीं लगता था। वह विरक्त रहता था। कभी-कभी वह मूनि-दीक्षा लेने की बात भी करता था। उसकी यह प्रवृत्ति देखकर उसकी माता कैकेयो को चिन्ता रहती कि पति तो मुनि बन ही रहे हैं, पूत्र भी यदि मुनि बन गया तो मैं कैसे जीवित रहेंगी। किस प्रकार भरत को दीक्षा लेने से रोक । तभी उसे अपने वर का स्मरण हो आया। वह शीघ्र ही राजा के पास पहुंची और बोली-'महाराज | आपने रानियों के समक्ष प्रसन्न होकर मुझे दर देने को कहा था, अब आप मेरा वर मुझ दे दीजिये। दशरप बोले-'देवि! बोलो, क्या मांगती हो। जो मांगोगी, वही दंगा।' रानी अपना वर पहले ही निश्चित कर चुकी थी । वह बोली-'नाथ! आप दीक्षा लेने से पहले मेरे पुत्र को अयोध्या का राज्य दे दीजिये।' दशरथ चिन्ता में पड़ गये। फिर कुछ देर सोचकर बोले-ठीक है, यही होगा। तुमने अपना वर मांगकर मुझे उऋण कर दिया।
इसके पश्चात् दशरथ ने राम को बुलाकर उनसे कहा-'बेटा! पहले एक युद्ध में तुम्हारी माता कैकेई ने बही कुशलतापूर्वक मेरा रथ चलाया था। उसके कारण मुझे युद्ध में विजय मिली थी। उसके उपलक्ष्य में प्रसन्न होकर मैने अन्य रानियों के समक्ष इन्हें इच्छित वर मांगने को कहा था। उस समय तो वह वर इन्होंने मेरे पास धरोहर रख दिया। अब ये अपना वर मांगकर अपने पूर सरत के लिए अयोध्या काय मांग रही हैं। प्रतिज्ञा के अनुसार मुझे उनको मांग पूरी करनी चाहिये । अन्यथा भरत दीक्षा ले लेगा और उसके वियोग में यह पुव-वियोग में प्राण दे देगी।
रामचन्द्र सुनकर बड़े विनय से बोले-देव ! अपने वचनों का पालन करें। अन्यथा प्रापका लोक में अपयश होगा । मापके अपयश के साथ तो मुझे इन्द्र की सम्पदा भी नहीं चाहिये।
दशरथ ने भरत को समझाया और राज्य स्वीकार करने का आग्रह किया--'पुत्र ! तुमने मेरी माज्ञा का कभी उलंघन नहीं किया । अब तुम्हें दीक्षा का विचार छोड़कर राज्य स्वीकार करना चाहिये ।' किन्तु भरत गेले-पिता जी! यदि संसार में ही सुख होता तो आप ही राज्य त्याग कर क्यों दीक्षा लेने का विचार करते। दशरथ इस उत्तर से निरुत्तर हो गये।
तब राम ने बड़े स्नेह से हाथ पकड़कर कहा-भाई ! तुमने जो बात कही है, वह तुम्हारे ही अनुरूप है। समुद्र में उत्पन्न होने वाला रत्न तालाब में नहीं होता। किन्तु अभी तुम्हारी बय तप करने की नहीं है। मतः पित्ता की निर्मल कीति फैलाने के लिये तुम्हें राज्य स्वीकार कर लेना चाहिये।
इस प्रकार भरत को समझाकर राम अपनी माता के पास पाज्ञा लेने पहुंचे। उनके जाते ही दशरथ वियोग विह्वल होकर मूच्छित हो गये। जब माता कौशल्या ने सुना तो वे भी मूच्छित हो गई । जब मूर्छा भंग हो गई तो वे शोक करने लगीं। तब राम ने पिता द्वारा दिये हुए बचन की बात बताकर कहा कि माता के वरदान के कारण पिता ने भरत को राज्य दे दिया है। अतः मुझे यहाँ से जाना ही होगा। मेरे यहाँ रहने से भरत की आज्ञा का
गा। इस तरह माता को सान्त्वना देकर पुनः पिता के पास प्राज्ञा लेने पहुंचे और भाज्ञा लेकर मन्य मातामों के पास गये और उन्हें समझा बुझाकर नमस्कार कर उनसे प्राज्ञा मागी।
फिर वे सीता के पास गये और बोले-'प्रिये ! मैं पिता की प्राज्ञा से अन्यत्र जा रहा है। तुम यहीं रहना। सीता बोली-'नाय ! स्त्री पति की छाया होती है । जहाँ पाप जायेंगे, मैं भी वहीं रहूंगी। राम ने उसे बन के कष्टों का भयानक वर्णन करके विरक्त करना चाहा, किन्तु सीता ने कहा-पति चरणों में ही सारे सुख है। बन के शूल भी मापके साथ रहकर मेरे लिये फल हो जायेगे।
जब सबसे विदा लेकर राम और सीता लक्ष्मण के पास पहुंचे तो उसे चलने को तैयार पाया । राम को बहा बाश्चर्य हुमा मी बोले-'भाई ! तुम यहाँ रहकर माता-पिता की सेवा करते रहना। किन्तु लक्ष्मण बोले