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जन-रामायण वनावर्त धनुष को ही चढ़ा दें तो पाप प्रसन्नतापूर्वक राम को अपनी कन्या दे दें। में कोई पापत्ति नहीं होगी। यदि न चढ़ा सके तो मैं प्रापकी कन्या को बलात् लाकर उसका अपने पुत्र के साथ विवाह कर दूंगा । जनक ने उसकी यह शर्त स्वीकार कर ली। विद्याधर योद्धा धनुष और जनक को लेकर मिथिलापूरी पाये । विद्याधर धनप की रक्षा करते हुए बाहर ठहर गये ।।
जनक के भाने से नगर में हर्ष छ। गया। तब जनक ने मंत्रियों से परामर्श किया और बताया कि चन्द्रगति ने स्वयंवर के लिये केवल बीस दिन का समय दिया है । मंत्रियों ने कहा-महाराज! राम लक्ष्मण की शक्ति का परिचय धनुष के चढ़ाने से ही हो जायगा। मंत्रियों के परामर्श से जनक ने सब राजाओं को निमन्त्रण भेज दिये । अयोध्या को भी दूत भेजा। वे स्वयंवर की तैयारी करने लगे। यथासमय सब पाये। राम,लक्ष्मण भी अपने माता-पिता के साथ-साथ पाये । सोता ने स्वयंवर मण्डप में माला लिये हए प्रवेश किया। कंचकी ने सब राजामों का यथाक्रम परिचय दिया पौर राजा एवं राजकुमार बारी-बारी से धनुष के पास आने लगे। किन्तु वे देखते कि धनुष से विजली के समान लाल-लाल प्राग निकल रही है। बड़े-बड़े भयानक सर्प फंकार रहे हैं । उन्हें देखते हा भय के मारे वे आंखें बन्द कर लेते थे। कोई भय के मारे कहीं गिर पड़ा, किसी को मुर्छा प्रा गई । सबका बुरा हाल था। अन्त में रामचन्द्र जी उठे। उन्होंने सूर्य की ज्योति के समान उस धनुष को उठाया । उस पर प्रत्यंचा चढ़ाई और टंकार करने लगे। उसकी टंकार से पृथ्वी गंज उठी। उस समय देवों ने पंचाश्चर्य विये । सब लोग जय-जयकार करने लगे । सीता ने प्रागे बढ़कर लज्जामिश्रित हर्ष के साथ रामचन्द्र जी के गले में वरमाला डाल दी पौर रामचन्द्र जी के पास बैठ गई। बह रामचन्द्र जी के पास बैठी हई इन्द्र के पास बैठी इन्द्राणो जैसी सुशोभित हो रही थी।
- इसके बाद लक्ष्मण उठे और उन्होंने सागरावतं धनुष को उठाकर उसको प्रत्यचा चढ़ा दी और उसपर सन्धान के लिए वाण की पोर देखने लगे । तब विद्याधरों ने बड़ी विनय मे कहा-नस रहने दीजिये ! लभपण अत्यन्त विनय से रामचन्द्र जी के समीप माकर बैठ गये।
विद्याधर धनुष छोड़कर अपने नगर को लौट गये और जाकर राम-लक्ष्मण के पराक्रम का वर्णन करने लगे। चन्द्रगति यह सुनकर अत्यन्त चिन्तित हो गया। उधर राम और सीता का विवाह बड़ी धूमधाम के साथ हुमा । जनक ने विपुल परिमाण में दहेज दिया। उसी समय जनक के भाई कनक ने अपनी कन्या लोकसुन्दरी का विवाह भरत के साथ कर दिया। राजा दशरथ अपने पुत्रों के साथ अयोध्या वापिस लौट आये।
भामण्डल को सीता के बिना कुछ भी न सुहाता था। यहां तक कि उसने खाना-पीना तक बन्द कर दिया। यह बात उसके पिता को पता चली तो उन्होंने उसे समझाया-बेटा ! अब सीता को तू ग्राशा छोड़ दे। अबोव्या के
राजकुमार राम के साथ सीता का तो विवाह हो गया। यह सुनकर भामण्डल को बड़ा कोध भामण्डल मौर आया और बोला-विद्याबल से रहित भूमिगोचरियों में कितना बल है, मैं उन्हें देखता हूँ। सीता का मिलन पोर वह सेना लेकर प्रयोध्या की ओर चल दिया। चलते-चलते वह विदग्धपुर पहुँचा ।
उस नगर को देखते ही उसे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो गया और शोक करते हुए मूछित हो गया कि मैंने क्या अनर्थ किया। मैंने अपनी बहन के साथ सम्बन्ध करना चाहा। तर लोग : अपने नगर वापिस ले गये । मूर्छा दूर होने पर उसके पिता ने पूछा-क्या बात है, कौन तुम्हारी बहन है । तब भामण्डल ने अपने पूर्व-जन्म का सारा वृत्तान्त सुनाकर बताया कि मैं राजा जनक का पुत्र हूँ, सीता मेरी सगी बहन है।
चन्द्रगति यह सुनकर सपरिवार अयोध्या पाया। एक मुनि से उपदेशः सुनकर चन्द्रगति को वैराग्य हो गया और भामण्डल को राज्य देकर स्वयं मुनि बन गया । दूसरे दिन राजा दशरय आदि मुनि बन्दना को पाये। वहाँ भामण्डल का परिचय पाकर वे उससे बड़े प्रेम से मिले । सीता भी भाई से मिलकर बड़ी प्रसन्न हुई। यह समाचार राजा जनक को भेजा गया। वे सपरिवार अयोध्या प्राये और अपने पुत्र से मिलकर माला-पिता के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा।
संसार की दशा और विभिन्न घटनामों के कारण दशरथ के मन में संसार से वैराग्य हो गया। ये सोचने