________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
में प्यार का यह नाम ही जगविख्यात हो गया। उसके अंग-प्रत्यंग इतने सन्दर थे, मानो विधाता ने उसे सांचे में ही ढाला हो-चन्द्रमा के समान मुख, पल्लव के समान कोमल आरक्त हस्ततल, हंसिनी की सी चाल, मौलश्री के समान भीनी-भीनी मुख की सुगन्धि, कोमल पुष्पमाल सी भुजायें, केहरी के समान कटि, केले के स्तम्भ सो जंधायें; शवी, रति और चक्रवर्ती की पटरानो का सौन्दर्य भी उसके समक्ष नगण्य लगता था। धीरे-धीरे वह सभी कलामों और विद्याओं में पारंगत हो गई।
एक बार नर्वर देश के एक म्लेच्छ राजा ने राजा जनक के राज्य पर चढ़ाई कर दी। अपने राज्य को नष्ट-भ्रष्ट होते देखकर जनक ने दशरथ के पास एक दूत भेजकर सहायता मांगी । दशरथ ने राम और लक्ष्मण को
चतुरंगिणी के साथ मिथिला भेज दिया । म्लेच्छों ने जनक और कनक दोनों भाइयों को बन्दी धनुःपरीक्षा और बनाया ही था कि दोनों राजकुमार मिथिला में पहंच गये और म्लेच्छों से युद्ध करके दोनों राम-सीता का भाइयों को मुक्त किया तथा म्लेच्छों को मार भगाया। तथा जनक को राज्य सौंप कर दोनों विवाह भाई वापिस अयोध्या पागये । राजा जनक राम की वीरता, सुन्दरता और गुणों से बड़े
प्रभावित हुए। साथ ही उनके द्वारा किये गए उपकार को चुकाने की भावना भी उनके मन में बनी रहती थी । अतः उन्होंने निश्चय किया कि मैं अपनी पुत्री सीता का विवाह राम के साथ कर दंगा।।
राम को सीता प्रदान करने का जनक का संकल्प नारद ने भी सुना। वे उत्सुकतावश सोता को देखने मिथिलापुरी आये और जनक की प्राज्ञा लेकर अन्तःपुर में पहुंचे। उस समय सीता दर्पण में अपना मुख देख रही थी। दर्पण में नारद की दाढ़ी जटाओं वाली भयानक आकृति के पड़ते ही सीता डरकर भीतर भाग गई। नारद भी उसके पीछे-पीछे जाने लगे । द्वारपाल नारद को जानते नहीं थे। उन्होंने नारद को रोका। दोनों ओर से कलह होने लगी। एक अपरिचित व्यक्ति को अन्तगर में प्रवेश करने से रोकने के लिये शोर सुनकर और सिपाही एकत्रित हो गये और नारद को मारने दौड़े । नारद शस्त्रधारी सिपाहियों को देखकर भयभीत हो गये और आकाश मार्ग से जड़कर कैलाशपर्वत पर ही दम ली। जरा आश्वस्त हुए तो उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि मैं सीता को देखने गया था। बहाँ मेरी यह दुर्गति हुई है। सीता ने ही मुझे पिटवाया है। इसके बदले में अगर सीता को दास न दिया तो मैं नारदही काहेका।
मन में इस प्रकार सोचकर उन्होंने सीता का एक चित्रपट बनाया और रथनपुर नगर में जाकर कुमार भामण्डल को वह चित्र दिखाया। चित्र देखते ही भामण्डल कामवाण से बिद्ध हो गया । उसकी दशा खराब हो गई। यह बात उसके पिता को ज्ञात हुई । पिता ने नारद से पूछा तो नारद ने कहा-'मिथिला के राजा जनक की सीता नाम की पुत्री है । वह प्रत्यन्त मुणवती, रूपवती और अनेक कलामों में पारंगत है। वह तुम्हारे पुत्र के सर्वथा उपयुक्त हैं राजा ने रानी से परामर्श किया और निश्चय किया कि यदि कन्या के पिता से कन्या की याचना करेंगे तो सम्भव है, वे न माने । प्रतः किसी उपाय से जनक को यहाँ ले आना चाहिये । फलतः चन्द्रगति की माशानुसार एक विद्याधर मिथिला गया और विद्या के बल से घोड़े का रूप धारण कर नगर में उपद्रव मचाने लगा। जब वह किसी प्रकार वश में नहीं माया तो राजा जनक स्वयं पहुंचे और घोड़े को वश में करके उस पर सवार हो गये घोडा जनक को लेउड़ा और स्थनूपुर में आकर भूमि पर उतारा। वहाँ घोड़े से उतरकर जनक एक मन्दिर में जाकर बैठ गये।
विद्याधर ने राजा चन्द्रगति को समाचार दिया। चन्द्रगति वहाँ से सीधा मन्दिर में पहुंचा और जाकर जनक से परिचय किया और प्रादर सहित अपने महलों में ले माया । वहाँ प्राकर दोनों में बातचीत होने लगी। चन्द्रगति बोला-सुना है, आपके कोई कन्या है । मैं चाहता हूँ, आप उसका विवाह मेरे पुत्र के साथ कर दें। जनक बोले-मैंने अपनी कन्या तो अयोध्यापति दशरथ के पुत्र राम को देने का संकल्प कर लिया है। यों कह कर वे राम के गुणों और उनकी योग्यता की प्रशंसा करने लगे। इस पर चन्द्रगति जनक का हाथ पकड़ कर आयुधशाला में ले गया और बोला-माप राम की वीरता की बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं। तो सुनिये। मेरे पूर्वज ममि विद्याधर को किसी समय परणेन्द्र ने दो षनुष दिये थे-एक का नाम वनावर्त है और दूसरे का नाम सागरावर्त है। यदि राम