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जन-रामायण 'तात! यहाँ तो मेरे दो भाई हैं सेवा करने को, किन्तु आपकी और माता सीता की सेवा करने को कौन है। इसलिए आपकी सेवा करने को मैं आपके साथ चलूंगा।'राम ने निरुपाय होकर लक्ष्मण को भी साथ चलने की अनुमति दे दी । जब माताओं पौर पिता से प्राज्ञा लेकर लक्ष्मण सुमित्रा माता के पास पहुंचे और प्राज्ञा मागी तो सुमित्रा ने आशीर्वाद देते हुए कहा-'पुत्र! तुम अवश्य जानो । तुम राम को अपना पिता दशरथ मानना पौर सोता को अपनी सुमित्रा माता मानना, और उन दोनों की हमारी ही तरह सेवा करना ।'
जब राम-सीता और लक्ष्मण चले तो परिजन-पुरजनों को मोखों से सावन-भादों की तरह मासुमों की वर्षा हो रही थी। राम के मना करने पर भी पूरवासी उनके पीछे-पीछे चले । अब सरयू का तट भा गया तो राम ने सबको समझाया -'पिता ने भरत को राज्य दिया है। आप लोग उनकी अरज्ञा मानकर सुखपूर्वक रहें और अब पाप लोग वापिस लौट जाय।
सबको विदाकर वे तीनों चल दिये। आगे राम थे, बीच में सीता और उनके पीछे लक्ष्मण । उन्होंने सरयू नदी पार कर गहन वन में प्रवेश किया।
इधर भरत का राज्याभिषेक करके दशरथ ने मुनि-दीक्षा लेली। उनके वियोग में कौशल्या और समिका शोकसंतप्त रहने लगीं। उनके होक को देखकर भरत का राज्य विष जसा प्रतीत होता था। केयी ने जब दोनों को निरन्तर विलाप करते दुखो देखा तो एक दिन वह भरत से बाला-'बेटा ! मुझ राज्य तो मिल गया, किन्तु राम और लक्ष्मण के बिना यह राज्य सूमा लगता है। वे पोर जनकनन्दिना राजवभव में पले हैं। वे पांव प्यादे पथरोलो जमीन पर कैसे चलते हींग । प्रतः तू सोध जाकर उन्ह खोटाला में भी तेरे पीछे-पीछे पा रही हैं।
यह सुनकर शीघ्रगामी घोड़े पर सवार होकर साथ में एक हजार घोड़े लेकर भरत बहाँ से रवाना हमा। वह नदी नालों को पार करता हुमा लोगों से पूछता हुमा एक भयानक वन में पहुंचा। यहाँ एसरोवर के किनारे राम लक्ष्मण और सीता को बैठे हुए देखा । वह दूर से ही धोड़े से उतर पड़ा और पंदल जाकर राम के चरणों में जाकर मूच्छित हो गिर पड़ा। राम ने उसे सचेत किया भौर परस्पर कुशल क्षेम पूछी। तब भरत हाथ जोड़कर मस्तक नवाकर बोला-'नाथ! प्राप विद्वान हैं। राज्य के कारण मेरी यह विडम्वना हो रही है। मापके बिना वह राज्य तो दूर रहा, मुझे अपना जीवन भी अभीष्ट नहीं है। आप अयोध्या चल और राज्य संभालें। मैं आपके सिर पर छत्र लगाये खड़ा रहूंगा, शत्रुघ्न चमर ढोरेगा और लक्ष्मण पाप का मंत्रीपद संभालेगा। मेरी मो पश्चाताप की अग्नि से जल रही है और पापकी और लक्ष्मण की माताय भी शोक से विह्वल हैं।'
भरत इस प्रकार कह ही रहा था कि इतने में कैकेयी रथ पर सवार होकर सौ सामन्तों के साय वहां प्रा पहंची । पुत्रों को देख कर शोक से यह हाहाकार करने लगो ! दोनों को उसने कंठ मे लगाया और बोली-चेटा ! उठो, अपनी राजधानी चलें और वहाँ चलकर राज्य करना। तुम्हारे बिना सब सुनसान मालूम देता है । स्त्री होने के कारण मुझ नष्टबुद्धि से जो अनुचित कार्य बन पड़ा है, उसके लिए तुम मुझे क्षमा करो।' यह सुन कर रामचन्द्रजी बोले-मां ! क्या तुम नहीं जानती, क्षत्रियों के बचन अन्यथा नहीं होते । पिताजो ने जो कहा है, उसका मुझे पौर तुम्हें भी पालन करना चाहिए, जिससे भारत की संसार में अपकीर्ति न हो।' फिर भरत को भी समझाया और सबके सामने उन्होंने भरत का राजतिलक किया और कैकेयी को प्रणाम करके तथा भरत को पुनः छाती से लगाकर दोनों को कठिनता से विदा किया।
भरत जाकर न्यायपूर्वक राज्य-शासन करने लगा। उसका, मन राज्य में नहीं लगता था। उसने प्रतिज्ञा की कि राम के जब दर्शन होंगे, तभी मैं मुनि-व्रत धारण कर लंगा। और वह घर में हो योगी की तरह रहने लगा।
भ्रमण करते-करते रामचन्द्र चित्रकूट पर्वत पर पहुंचे। वहाँ कुछ दिन रहे। सुन्दर मिष्ट फल, झरनों का शीतल जल, सुरागाय का दूध और जंगलो चावल, कोई कष्ट नहीं था। फिर वहाँ से मालव देश में दशपुर के
निकट पाये । वहाँ देखा कि ईख के खेत खड़े हैं, पान्य के ढेर लगे हैं। गगनचुम्बी जिनालय वसकर्णका कष्ट बने हैं, किन्तु मनुष्य एक भी नहीं दीख पड़ता। एक दरिद्र मनुष्य माता हुआ दिखाई दिया।
निवारण उससे पूछा-यहाँ के सब मनुष्य कहाँ चले गये ? बह दोला-दशपुर नगर में वधकर्ण