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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
पिता के संहार से क्रुद्ध हुए रेणुकासुत्रों ने प्रतिज्ञा की कि हम इस पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर देंगे और उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का समूल नाश किया। उन्होंने अपने हाथों से मारे हुए राजाओं के सिर काटकर खम्भों में लटका रक्खे थे। इस प्रकार दोनों भाई क्षत्रियों का विनाश करके राज्यलक्ष्मी का निर्विघ्न भोग कर रहे थे । एक दिन निमित्तज्ञानी ने परशुराम से कहा- आपका शत्रु उत्पन्न हो गया है, इसका प्रतीकार कीजिये । शत्र के पहनने का उपाय यह है कि आपने मारे हुए राजाश्रों के जो दांत इकट्ठे किये है, वे जिसके लिये भोजन रूप परिणत हो जायेंगे, समझ लीजिये, वही आपका शत्रु है ।
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निमित्तज्ञानी के वचन सुनकर परशुराम को बड़ी चिन्ता उत्पन्न हो गई। उन्होंने अविलम्ब भोजनशाला खुलवा दी और घोषणा करवा दी कि कोई भी व्यक्ति इस भोजनशाला में निःशुल्क भोजन कर सकता है। तथा कर्मचारियों को आदेश दे दिया कि जो भोजन का इच्छुक आवे, उसे पात्र में रक्खे हुए दति दिखा कर भोजन कराया जाय। इस प्रकार प्रति दिन भनेक लोग भोजन के लिये आने लगे ।
एक दिन सुभीम ने अपनी माता से अपने पिता के बारे में पूछा । माता ने बड़े दुःख के साथ उसके पिता के साथ परशुराम ने जो व्यवहार किया था, वह विस्तारपूर्वक सुना दिया तथा यह भी बता दिया कि हम लोग प्रज्ञातवास कर रहे हैं । सुनकर सुभीम ने अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने का संकल्प किया और तत्काल कुछ राजकुमारों के साथ परिव्राजक वेश धारण करके अयोध्या की ओर चल दिया। अयोध्या में उसके पहुँचने से पहले ही नगर में नाना प्रकार के अपशकुन और अमंगल सूचक चिन्ह प्रगट होने लगे। नगर रक्षक देवता रुदन करने लगे, पृथ्वी कांप उठी, दिन में तारे दिखाई देने लगे । नगरवासी ही नहीं, परशुराम भी इन अमंगल चिन्हों के कारण चिन्ता में पड़ गये ।
सुभीम कुमार जब परशुराम की दानशाला में पहुँचे तो कर्मचारियों ने उन्हें उच्च ग्रासन पर बैठाया श्रीर नियमानुसार मृत राजाओं के दांत उन्हें दिखाये । सुभौम के पुण्य प्रभाव से वे दाँत शालि चावलों के भात बन गये । सेवकों ने तत्काल इस घटना की सूचना राजा परशुराम को दी। राजा ने कुछ हृष्ट-पुष्ट सैनिकों को उस व्यक्ति को गिरफ्तार करके लाने के लिये भेजा। सैनिकों ने भोजनशाला में पहुँचकर सुभौम से कहा- 'तुम्हें राजा ने बुलाया है, तुम हमारे साथ चलो | अगर तुम नहीं चलोगे तो हम तुम्हें बलात् ले जायेंगे ।' सुभम ने उन क्षुद्र सैनिकों से विवाद करना उचित नहीं समझा, किन्तु उन्हें जोर से डपट दिया । इतने मात्र से ही वे सैनिक भय के मारे आतंकित गये और वापिस चले गये। यह वृत्तान्त सुनकर परशुराम को बहुत क्रोध याया और सेना लेकर भोजनशाला को घेर लिया। सुभीम यह देखकर बाहर निकल ग्राये और परशुराम के सामने आ डटे। परशुराम ने सेना को सुभौम का वध करने का आदेश दिया । किन्तु सुभीभ के प्रबल पुण्य का उदय था, उनके चत्रवर्ती बनने का योग आ पहुंचा था। फिर उनका कोई क्या बिगाड़ सकता था। सेना उनके सामने अधिक समय तक नहीं ठहर सकी । यह देखकर परशुराम ने अपना हाथी सुभौम की प्रोर बढ़ाया। सुभौम के पुण्य माहात्म्य से एक गन्धराज मदोन्मत्त हाथी था गया। वे उस हाथी पर मारूढ़ हो गये। इतना ही नहीं, एक हजार देवों से रक्षित चक्ररत्न भी उनके पास स्वतः आ गया । वे चक्ररत्न से सुशोभित होकर धागे बढ़े। परशुराम ने सुभीम का वध करने के लिये अपना अमोध परशु फेंका। किन्तु उनका पुण्य क्षीण हो चुका था। उनके तो मृत्यु का योग था । सुभौम उस बार को बचा गये और उन्होंने चक्र द्वारा परशुराम का वध कर दिया । इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने वाले परशुराम काल कवलित हो गये ।
सुभौम भगवान भरनाथ के तीर्थ में उत्पन्न हुआ था। वह आठवाँ चक्रवर्ती था । उसकी प्रायु साठ हजार वर्ष की थी। उसकी अवगाहना मट्ठाईस धनुष थी। सुवर्ण के समान उसके शरीर की कान्ति थी ।
परशुराम की मृत्यु के बाद सेना ने युद्ध बन्द कर दिया। सुभीम ने सबको प्रभय दान दिया। तभी उनके शेष तेरह रत्न श्रोर नौ निधियों प्रगट हो गईं। वे छह खण्ड का श्राधिपत्य पाकर चक्रवर्ती बन गये और चिरकाल तक दस प्रकार के भोग भोगते रहे। उनके पास चत्रवर्ती पद की सम्पूर्ण विभूति थी ।
सुभौम का एक रसोइया था प्रमृत रसायन । एक दिन रसोइया ने चक्रवर्ती को रसायना नामक स्वादिष्ट कही परोसी । किन्तु चक्रवर्ती यह नाम सुनते ही रसोइया से कुपित हो गया। उसके प्रादेश से रसोइया को कठोर दण्ड