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पदम चक्रवर्ती
भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में पदम नामक नौवां चक्रवर्ती हमा। चक्रवर्ती पर्याय से पहले तीसरे भव की यह कथा है । सुकच्छ देश के श्रीपुर नगर में प्रजापाल नामक एक राजा था। वह बड़ा वीर और भ्यायी था। उसके
राज्य में प्रजा बड़े प्रानन्दपूर्वक रहती थी। एक बार उल्कापात देखकर उसे जीवन की क्षणभंगुरता का ज्ञान हुमा । तत्काल उसने अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया और वह शिवगृप्त
भगवान के पास जाकर प्रात्म-कल्याण की अभिलाषा से सम्पूर्ण पाभ्यन्तर और बाह्य प्रारम्भ और परिग्रह का त्याग कर प्रवजित हो गया। आठ प्रकार की शुद्धियों से उसका तप देदीप्यमान हो रहा था। अन्त में समाधि द्वारा मरण करके वह अच्युत स्वर्ग का इन्द्र बना।
__ काशी देश की वाराणसी नगरी में इक्ष्वाकु वंशी महापद्म नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी से पदम आदि शुभ लक्षणों से सुशोभित पद्म नामक पुत्र हुमा। उसकी प्रायु तीस हजार वर्ष की थी। उसका शरीर
बाईस धनुषं उन्नत था। सुवर्ण के समान उसकी कान्ति थी । कुमार काल बीतने पर पिता चक्रवर्ती पद्म का मे उसे राज्य-भार सौंप दिया 1 उसके प्रबल पुण्य के योग से उसकी आयुधशाला में चक्र रत्न
पादि शस्त्र उत्पन्न हए। तब वह दिग्विजय के लिए निकला। उसने कुछ ही काल में सम्पूर्ण
भरत क्षेत्र के राजाओं को अपना माण्ड लिक बनाकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। साथ ही उसको चौदह रत्न और नो निधियों का लाभ हया । उसे दस प्रकार के भोग प्राप्त थे। समस्त सांसारिक भोग उसे उपलब्ध थे, किन्तु वह इनमें कभी आसक्त नहीं हुया । उसके दस पुत्रियाँ थीं जो अत्यन्त सुन्दर और शीलवती थीं। उसने उन पुत्रियों का विवाह सुकेतु विद्याधर के पुत्रों के साथ कर दिया।
एक बार चक्रवर्ती प्रकृति की शोभा निहार रहा था। आकाश में यत्र तत्र बादल के टुकड़े नदी में तैरते हए राजहंसों के समान इधर उधर डोल रहे थे। थोड़े समय बाद आकाश निर्मल हो गया, बादल न जाने कहाँ अदृश्य हो गये । इस सहज घटना का चक्रवर्ती के मन पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा। उसका चिन्तन एक नई दिशा की ओर मुड़ गया-बादल का कोई शत्रु नहीं; फिर भी वह नष्ट हो गया। फिर जिनके सभी शत्रु हैं, ऐसी सम्पत्तियों में विवेकी मनुष्य को श्रद्धा क्यों कर स्थिर रह सकती है। यह विचार कर चक्रवर्ती ने अनेक राजाओं के साथ जिन-दीक्षा ले ली और तप द्वारा समस्त प्रास्रव का निरोध करके तथा संचित कर्मों की निर्जरा करके धातिया कों का क्षय कर दिया। वे नौ केवल लब्धियों के स्वामी हो गये 1 अन्त में अघातिया कर्मों का नाश करके अजर, अमर, मुक्त हो गये।
नन्दिमित्र बलभद्र, दत्त नारायण और
बलीन्द्र प्रतिनारायण पूर्वभव-भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में सातवें बलभद्र नन्दिमित्र और नारायण दत्त हुए । इससे पूर्वातीसरे भव की यह कथा है
अयोध्या नगरी में एक राजा राज्य करता था। उसके दो पुत्र थे। किन्तु पिता इन दोनों से ही बहुत असन्तुष्ट था। इसलिए उसने अपने छोटे भाई को युवराज पद दे दिया। दोनों भाइयों को इससे बड़ा परिताप