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जैन रामायण
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रावण को चक्ररत्न तो पहले ही प्राप्त हो चका था। अब उसने दिग्विजय करना प्रारम्भ किया। वह प्रभंजन के वेग से चला । राजा लोग उपहार देकर उसका स्वागत करते और उसकी याधीनता स्वीकार कर लेते थे। किन्तु जो उसकी प्राधीनता स्वीकार नहीं करते थे, उनको वह पराजित करके कठोर दण्ड देता था। इस प्रकार अठारह वर्ष में उसने भरत-क्षेत्र के तीनों स्त्रण्डों को जीत लिया और अर्घचक्री बनकर वह लंका में रहकर शासन करने लगा।
रावण चरित्रनिष्ठ धामिक व्यक्ति था । वह परस्त्री की मन में भी कभी बांछा नहीं करता रावण के चरित्र का था। जब वह इन्द्र को जीतने चला और इन्द्र द्वारा नियुक्त राजा नलकुवेर के नगर दुलध्यपुर एक उज्वल पर पहुंचा तो वह मायामा को को नहीं बोल पाया । उसने अनेक प्रयत्न किये, नाना उपाय
किये । किन्तु नाम के अनुरूप दुर्लध्यपुर दूसध्य ही रहा। इस प्रकार उसे वहाँ पड़े पड़े छ: माह हो गये । वह बड़ा चिन्तातुर हो गया -यों कब तक यहां पड़ा रहा जा सकता है और बिना इसे जीते प्रागे भी कैसे बढ़ा जा सकता है। पीछे लौटना रावण के स्वभाव के विरुद्ध था।
रावण की कीर्ति का सौरभ नलकुयेर की पटरानी रम्भा के कानों में भी पड़ा। वह अपने स्वयंवर के समय से ही रावण में अनुरक्त थी, किन्तु स्वयंवर के समय रावण पहुँच नहीं पाया था, मत: मजबूरन रम्भा ने नलकुवर के गले में वरमाला डाल दी थी। किन्तु अब रावण को अपने निकट पाया जानकर उसका सुप्त प्रेम पुनः जाग उठा। उसने अपने मन की बात अपनी सखी और दासी चित्रला से कही और उससे यह भी कह दिया कि अगर तू मुझ जावित देखना चाहती है तो कोई उपाय कर, जिससे मैं रावण से मिल सकें । चित्रला उसे पाश्वासन देकर गुप्त माग से रावण के कटक में पहुंची और रावण से मिलकर उसने अपनी स्वामिनी का अभिप्राय निवेदन किया। रावण ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया-'भद्र । मैं परस्त्री से कभी समागम नहीं करता। यह बड़ा निद्य की है। चित्रला निराश होकर वापिस जाने लगी तो रावण के लव भ्राता विभीषण ने जो उसका मन्त्री भी था, रावण को समझाया-प्रार्य प्रापको थोडा असत्य बोलकर भी इस समय दासी की बात स्वीकार कर लेना चाहिय । इससे रम्भा पापको कोट की चाबी दे देगी। रावण ने बडे अनमने भाव से दासी को बुलाकर कह दिया-तू अपनी स्वामिनी से जाकर कह देना कि मैं उनसे अवश्य मिलंगा, किन्तु चोरों की तरह नहीं। जब मैं नगर में पहुँचूंगा, तब मिलूंगा।
दासी प्रसन्न होकर लौट गई और जाकर रम्भा को सब बातें बता दी। रम्मा प्रत्यन्त कामासक्त हो उठी पौर उसने शालिका नाम की विद्या रावण के पास भेज दी. जिसके द्वारा रावण नगर के भीतर पहुंच गया और नलकुवेर को बन्दी बना लिया।
जब नलकुबेर को राजसभा में रावण के समक्ष उपस्थित किया गया तो रावण ने रम्भा को भी बुलाया। रम्भा पुलकित होकर पाशा संजोये रावण के निकट पहुंची तो रावण ने कहा-'माता !' उस अप्रत्याशित संबोधन पर रम्भा चौकी तो रावण बोला-- तुमने मुझं विद्या दी है, अतः तुम मेरी गुरुमाणो हो। पोर गुरुपाणी माता के समान होती है । पर पुरुष की कामना करना महापाप है। तुम अपने पति नलकुकर में अनुरक्त रहो । तुमने मुझे विद्या दी है, भत: मैं तुम्हारे लिये तुम्हारे पति को मुक्त करता हूँ।' यों कहकर उसने नलकुवेर को मुक्त कर दिया । रम्भा बड़ी लज्जित हुई। यह रावण के महान चरित्र का एक उज्वल पक्ष है, जिसको लोगों ने समझा नहीं या उपेक्षा की है।
किष्किधा नगर के वान रवंशी राजा सूर्यरज और उसकी रानी चन्द्रमालिनी के बाली नामक बाली पारा पुत्र हुमा। वह महा बलवान, धार्मिक था। उसके कुछ समय पश्चात् सुग्रीव नामक पुत्र रावण का पराभव प्रौर श्रीप्रभा नाम की कन्या उत्पन्न हुई। इसी प्रकार किष्कपुर नगर के रा
उसकी रानी हरिकान्ता के नल और नील नामक दो पुत्र हुए। सूर्यरज के पश्चात् बाली प्रपती स्त्री ध्रुया के साथ राज्य शासन करने लगा।
बाली सम्यग्दष्टि था। उसकी प्रलिशा थी कि देव, गुरु और शास्त्र के अतिरिक्त किसी को नमस्कार नहीं