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जैन रामायण
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बाली मुनि ने कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त की ।
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ज्योतिपुर नरेश बए की पुत्री जोहड़ी थी। उसकी याचना चक्रपुर के राजकुमार साहसगति और सुग्रीव दोनों ने की थी। किन्तु बह्निशिख ने साहसगति को अल्पायु जानकर अपनी पुत्री का विवाह सुग्रीव के साथ कर दिया। उससे दो पुत्र उत्पन्न हुए-श्रंग और अंगद । किन्तु साहसगति के मन से सुतारा निकल नहीं सकी । वह उसे प्राप्त करने की निरन्तर चेष्टा करता रहा। इसके लिए वह रूप परिवर्तिनी शेमुषी विद्या का साधन करने लगा !
एक बार रावण अपने परिवार के साथ सुमेरु पर्वत परं जिन मन्दिरों के दर्शनों के लिए गया हुआ था। वहाँ से लौटते हुए विभक्त पर्वत पर उसने अपार भीड़ देखी। पूछने पर मारीच से ज्ञात हुआ कि पर्वत पर प्रनन्तवीर्य मुनि को प्राज हो केवलज्ञान हुआ है। यह सुनकर रावण बड़े भक्ति भाव से विमान से ख़तरा सौर केवली भगवान के दर्शन किये। भगवान का उपदेश सुनकर अनेक लोगों ने नियम अस लिए । उस समय किसी ने रावण से भी कहा कि ग्राप भी इस समय कुछ व्रत लीजिये । राजन बोला- 'मेरा मन सदा पापी रहता है अतः मैं कोई व्रत नहीं ले सकता। फिर भी मैं एक व्रत लेना चाहता हूं कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी, मैं उसके साथ बलात्कार नहीं करूंगा।' यह कह कर उसने गुरु से यह व्रत ले लिया। कुम्भकर्ण और विभीषण ने गृहस्थ के व्रत लिए ।
विजयार्ष की दक्षिण श्रेणी में आदित्यपुर नाम का एक नगर था । वहाँ के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती थी। उनके पवनकुमार नाम का एक पुत्र था। एक बार राजा प्रह्लाद अपने परिवार सहित कैलाश पर्वत पर तीर्थ वन्दना को गये। उसी समय महेन्द्रपुर के राजा महेन्द्र अपनी रानी मनोवेगा के साथ हनुमान का जन्म तीर्थयात्रा को आये। दोनों राजाश्रों में परस्पर परिचय और मित्रता हो गई। राजा महेन्द्र ने प्रह्लाद से निवेदन किया कि मेरे अंजना नाम की एक कन्या है । मेरा विचार आपके पुत्र पवनकुमार के साथ उसका सम्बन्ध करने का है। राजा प्रह्लाद ने भी प्रसन्नतापूर्वक इस सम्बन्ध की स्वीकृति दे दी और सम्बन्ध पक्का कर दिया। दोनों धोर से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं।
इसी बीच पवनकुमार ने भी अंजना के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी। वह उसे देखने को व्याकुल हो गया। और अपने मित्र प्रहस्त से बोला – मित्र ! यदि तुम मुझे जीवित देखना चाहते हो तो मुझे अंजना को एक बार दिखा दो । प्रहस्त ने वाद-विवाद के बाद अंजना को उसी रात को दिलाना स्वीकार कर लिया ।
रावण द्वारा
-प्रहण
रात्रि को विमान में बैठकर दोनों मित्र महेन्द्रपुर नगर में मंजना के महल पर उतरे और सातवीं मंजिल पर झरोखे में से उन्होंने यजना को देखा। उसके प्रनिद्य सौंदर्य को देखकर पवनकुमार प्रसन्न हो गया। उस समय अजना सखियों से घिरी बैठी थी और सखियाँ उससे विनोद कर रही थीं। कोई पवनकुमार के रूपगुणों की प्रशंसा कर रही थी, तभी मिश्रकेशी नाम की सखी ने पवनकुमार की निन्दा की। अजना लज्जावश मौन बैठी रही। पचन कुमार ने अपनी निन्दा सुनी तो वह बड़ा क्रोषित होकर पंजना को मारने उठा- क्यों उसने मेरी निन्दा सुन ली। वह अवश्य पर पुरुष में प्रासक्त है। किन्तु प्रहस्त ने उसे समझा बुझाकर शान्त किया। किन्तु जना के प्रति दुर्भाव लेकर पवनकुमार प्रहस्त के साथ लौट माया । उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने दूसरे दिन महेन्द्रपुर पर बढ़ाई करने के उद्देश्य से रणभेरी बजा दी और महेन्द्रपुर की भोर सेना लेकर चल दिया । महेन्द्र ने प्राकर कुमार के पैर पकड़ लिए। उसके पिता ने भी समझा-बुझाकर शान्त किया। पवनकुमार ने मन में सोचा कि इस समय तो इनकी बात मान लेनी चाहिए। विवाह के बाद उस दुष्टा को जन्म भर के लिए मैं छोड़ दूंगा। इस तरह सोचकर वह युद्ध से निवृत हो गया । यथासमय दोनों का विवाह हो गया और विदा होकर मादित्यपुर मा गये ।
नगर में वापिस आने पर कुमार ने भजना को महल के एक एकान्त कक्ष में रख दिया । वह उससे न बात करता, न उसकी मोर देखता ही था। 'जना पति के इस प्रकारण कोष से बड़ी दुखी रहती थी और दिन-रात विलाप किया करती थी। घर के सभी लोग भी प्रजना के दुःख से दुखी रहते थे।
इसी बीच राजा वरुण से रावण का युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में वरुण के पुत्रों ने खरदूषण को पकड़
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