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जन रामायण
में बोर से लात मारी और क्रोध में भर कर उसे आदेश दिया कि तू इसी वक्त मेरे घर से निकल जा और अपना मुंह कहाँ जाकर काला कर। राजा प्रह्लाद ने अपनी स्त्री की इस राय से सहमति दिखाई। केतमती ने अंजना के साथ बसन्तमाला को भी घर से निकाल दिया।
यहां से निकल कर दोनों निरपराधिनी अबलायें अपने कर्मों को दोष देती हई और लोकनिन्दा और लोकउपहास का भार ढोती हुई चल दी । चलते-चलते उनकी दशा बुरी हो गई। वे अन्त में अपने पिता महेन्द्र के महलों पर पहुंचीं। द्वारपाल ने उनसे सारा समाचार ज्ञात कर महाराज को समाचार दिया। किन्तु जब राजा को यह जात हया कि कूकर्म के कारण मजना को उसके घर से निकाल दिया है तो उन्होंने भी अपने घर में स्थान देने से इनकार कर दिया। वहां से निराश होकर अजना अपने परिवारी और सम्बन्धिषों के द्वार पर भी गई। किन्तु उसे किसी ने प्राश्रय नहीं दिया ।
सब पोर से निराश होकर अंजना अपनी सखी के साथ वन को चलदी। राह में उसे अपार कष्टहए। वह दुःख से बार बार विलाप करने लगती, किन्तु सखी उसे धीरज बंधाती। यों चलते चलते वे एक पर्वत की गुफा के निकट पहुंचीं। वहां उन्होंने एक मुनि को ध्यान लगाये बैठे देखा। मुनि को देख कर दोनों को सन्तोष हुआ। उन्होंने मुनि को नमस्कार किया। मुनि महाराज ने उन्हें आशीर्वाद दिया और उन्हें सान्त्वना देते हाए कहा 'पूत्री! तू दुःख मत कर । तेरा पुत्र लोकपूज्य होगा और पति से भी शीघ्र ही तेरा मिलन होगा ।'
मुनि वहाँ से अन्यत्र चले गये और दोनों सखी उस गुफा में रहने लगी तथा जंगल के फलों और झरने के बल से अपना निर्वाह करने लगीं। एक दिन एक भयानक सिंह पाया और गुफा के द्वार पर भयंकर गर्जना करने लगा। अंजना उसे सुनकर अत्यन्त भयभीत हो गई । तब उसके शील और पुण्य के प्रभाव से एक देव ने अष्टापद का रूप धारण कर सिंह को भगा दिया।
नौ मास पूर्ण होने पर अंजना के पुत्र हुआ। पुत्र महनीय पुण्य का अधिकारी था। उसके तेज से गुफा में प्रकाश हो गया । अंजना पुत्र का मुख देख कर एक बार तो अपने सारे दुःखों को भूल गई। दोनों सखियां बड़े दुलार से उसका पालन करने लगीं। धीरे-धीरे बह लोकोत्तर पुत्र चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगा।
एक दिन बसन्तमाला ने पाकाश में एक विमान देखा । उसे देखकर अंजना भयभीत हो गई. कहीं कोई शत्र मेरे पुत्र को मारने तो नहीं पाया। इस माशंका से वह विलाप करने लगी। उसके विलाप का स्वर सुन कर विद्याधर ने विमान नीचे उतारा मौर अपनी स्त्रियों सहित वह दोनों सखियों के पास गया। वहाँ जाकर उसने उनका परिचय पूछा । वसन्तमाला ने सारी घटना सुनाकर परिचय दिया। परिचय सुनकर वह विद्याधर बोलापरे यह अंजना तो मेरी भानजी है। बहुत दिन से इसे नहीं देखा था। अतः मैं इसे पहचान नहीं सका । मेरा नाम प्रतिसूर्य है। मैं हनुरुह द्वीप का रहने वाला है। फिर अंजना को उसने उसके बचपन की प्रनेक घटनाएँ सुनाकर सान्त्वना दी। और बालक के लग्न देखकर बोला-बालक का जन्म चैत्र कृष्णा अष्टमी को रात्रि के पिछले प्रहर में श्रवण नक्षत्र में हुमा है । अतः यह सुखी और पराक्रमी होगा।' फिर वह विमान में बैठा कर सबको ले चला।
विमान में मोतियों की झालरं टंगी हुई थीं। मामा-भानजी बातों में निमग्न थे। बालक माता की गोद
हिलती हुई मालाभों को पकड़ने को बार-बार हाथ मारता था। एक बार उसने ज्यों ही माला पकड़ने को जोर मारा तो माता की गोद से खिसक कर विमान में से नीचे जा गिरा। बालक के गिरते ही अंजना जोरों से चीख उठी । सभी लोग इस प्राकस्मिक मर्मान्तक विपत्ति से त्रस्त हो उठे। विमान को दु:शंका के साथ नीचे उतारा किन्तु वहाँ सबने पाश्चर्य के साथ देखा कि बालक जिस शिला पर गिरा था, वह शिला तो छार छार हो गई है। किन्तु बालक के कोई चोट नहीं पाई है और वह मजे में पड़ा पड़ा अंगूठा चूस रहा है। अंजना ने बड़ी पुलक से पुत्र को उठा लिया और छाती से चिपटा कर चूमने लगी। सब लोगों को विश्वास हो गया कि जब बचपन में इसमें ऐसी देवी शक्ति है तो यह निश्चय ही चरम शरीरी है।
सब लोग पुनः विमान में बैठे पोर आनन्द के साथ हनुरुह द्वीप में पहुंचे। वहां अंजना और उसके पुत्र का गाजे बाजे के साथ स्वागत हुआ और पुत्र-जन्मोत्सव बड़े धूमधाम और समारोह के साथ मनाया गया। उसका
में बंद