________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
रावण ने क्रोध में भर कर उस पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। सहस्ररश्मि भी युद्ध के लिए तैयार हो गया। दोनों ओर से युद्ध हुमा । अन्त में रावण ने उसे कौशल से नागपाश से बांध लिया। जब यह बात सहस्ररश्मि के पिता बाहरथ को-जो चारण ऋद्धिधारी तपस्वी मुनि थे—शात हई तो उन्होंने रावण को समझाया। फलतः रावण ने सहस्ररश्मि को सम्मानपूर्वक छोड़ दिया और उसके साथ बन्धुत्व भाव प्रगट किया। किन्तु सहस्ररश्मि अपमान से दुखित होकर दिगम्बर मुनि बन गया।
तत्पश्चात् रावण आगे बढ़ा । मार्ग में उसने अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया, पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । मार्ग में जो राजा पड़े, उन्हें जीतता हुमा उत्तर दिशा की ओर बढ़ा।
रावण अब इन्द्र के नगर की ओर बढ़ने लगा । किन्तु मार्ग में दुलंघ्यपुर नगर ने उसका अवरोध किया। इन्द्र ने विजया के मार्ग में रक्षा के लिए इस नगर में नलकुबेर को नियुक्त कर रखा था। नलकुवेर ने नगर के चारों ओर अभेद्य कोट बना रक्खा था तथा उसके द्वारों का पता नहीं चलता था। गुप्त द्वार बनाये हुए थे । कोट पर किसी शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता था। रावण यह देखकर अत्यन्त चिन्तित हो गया। किन्तु नलकुवेर की स्त्री रम्भा ने ही कामासक्त होकर कोट को विजय करने की विद्या रावण को बता दी और रावण ने उसे सहज ही जीत लिया।
जब इन्द्र को ज्ञात हुमा कि रावण शस्त निकट गानोका नेता, करमोपर भा डटा। दोनों प्रोर से भयानक युद्ध हुआ। वीर प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करने लगे । इस युद्ध में इन्द्र के पुत्र जयन्त ने राक्षसवंशी माल्यवान के पुत्र श्रोमाली को मार डाला। इन्द्र के लोकपालों को कुम्भकर्णादि वीरों ने नागपाश से बांध लिया। तब इन्द्र और रावण में शस्त्रास्त्रों और विद्यामों से भयानक युद्ध हुमा। दोनों ही वीर थे। दोनों ने एक दूसरे के शस्त्रास्त्र और विद्यायें बेकार कर दिये । एक दिन युद्ध करते हुए रावण बड़ी फर्ती से अपने लोक्यमण्डन हाथी से उछलकर इन्द्र के ऐरावत हाथी पर पहुंच गया और इन्द्र जब तक सम्हले, तब तक रावण ने उसे नागपाश में बांध लिया । देव सेना पराजित होकर भाग गई। रावण की जय-जयकार होने लगी। रावण ने माली पौर श्रीमाली की मृत्यु का बदला चुका दिया।
रावण विजया की दोनों श्रेणियों को जीत कर मार्ग के सारे राजामों को जीतता हमा लंका लौटा। वहां प्राकर उसने इन्द्र, सोम, यम आदि को कारागार में डाल दिया। तब इन्द्र का पिता राजा सहस्रार प्रजा के अनुरोध को मानकर रावण के पास पाया और इन्द्र को छोड़ देने का प्राग्रह किया। रावण ने सहस्रार का यथोचित सम्मान किया और हाथ जोड़कर बोला-आप जो पाशा देंगे वही होगा । और लोकपालों से विनोद में हंसते हुए बोला-इन्द्र जब मेरा दास बनकर गांव के गधों की रखवाली करेगा, तब मैं उसे छोड़ देगा। इसके अतिरिक्त वायु मेरे यहां झाड़ दे, यम पानी भरे, कवेर मेरे हार की रक्षा करे, अग्नि रसोई बनावेत घड़ों में पानी भरकर लंका के बाजारों में छिड़काव करें तो मैं सबको छोड़ दूंगा, अन्यथा नहीं।
यह विनोद बड़ा मर्मभेदी था। लोकपाल सुनकर लज्जा से अवनत मुख हो गये । तब रावण ने सबको मुक्त कर दिया और स्नान भोजन कराके इन्द्र से बोला-पाज से तुम मेरे चौथे भाई हो। तुम यहाँ लंका में रहकर राज्य करो और मैं रयनपुर चला जाऊँगा। फिर सहसार से बोले-आप हमारे पिता तुल्य हैं। इन्द्र मेरा चौथा भाई है। इसका इन्द्र पद और लोकपालों का पद यथापूर्व रहेगा। दोनों श्रेणियों पर इसका ही अधिकार रहेगा। यदि यह और भी राज्य चाहे तो ले ले । पाप चाहे यहाँ विराजे या रथनूपुर, दोनों प्रापकी ही हैं।
इन वचनों से सहस्रार पत्यन्त सन्तुष्ट हो इन्द्र भादि सहित वहां से चलकर रचनपुर आये। किन्तु मान भंग के कारण इन्द्र और लोकपालों का मन व्यथा से भर गया था। उनका मन किसी काम में न लगता था । इन्द्र निरन्तर संसार के स्वरूप पौर संपत्ति की क्षणभंगुरता के चिन्तन में डबा रहता । अन्त में एक दिन वह पुत्र को राज्य-भार देकर लोकपालों मोर अनेक राजाओं के साथ दिगम्बर मुनि बन गया और घोर तपस्या करके संसार से मुक्त हो गया।