________________
जैन रामायण
१९९ राजा लोग एक अज्ञातकुलशील व्यक्ति के गले में वरमाला पड़ी देखकर अत्यन्त ऋद्ध हो गये और लड़ने के लिए तैयार हो गये । तब राजा शुभमति उनसे लड़ने के लिए तैयार हुमा, किन्तु दशरथ ने उसे रोक दिया और सेना लेकर स्वयं रणक्षेत्र में जा पहुँचा। राजा दशरथ के सारथी का दायित्व कैकेयी ने लिया। कंकेयो रथसंचालन में प्रत्यन्त निपुण थी। दोनों ओर से भयानक युद्ध हुना। किन्तु दशरथ की रणचातुरी और कैकेई की रघ-संचालन की चातुरी के कारण विजयथी दशरथ को मिली। राजा पराजित हो गये। दशरथ का कैकेयो के साथ समारोहपूर्वक विवाह हो गया और वह अयोध्या लौट आये तथा जनक मिथिला चले गये।
एक दिन दशरथ रानियों के बीच बैठे हुए कैकेयी की प्रशंसा करते हुए बोले-प्रिये ! तुमने जिस कौवाल से रथ का संचालन किया था, उसी के कारण मेरी विजय संभव हो सकी थी। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर मांगलो । कैकेयी पहले तो अपनी लघुता बताती हुई टालती रही। किन्तु जब राजा ने बार-वार प्राग्रह किया तो बोली-'नाथ ! मेरा बर पाप धरोहर के रूप में सुरक्षित रखलें। जब मुझे आवश्यकता होगी, तब मैं मांग लूंगी।' राजा ने भी कह दिया तथास्तु ।
भरत क्षेत्र के मध्य में विजयाचं नामक एक विशाल पर्वत था, जिसकी दो श्रेणियां थीं-उत्तर धेणो और दक्षिण श्रेणी। इन दोनों श्रेणियों की प्रधानी कगमाः दालनातीगीर मनगर। इन श्रेणियों में विद्याधरों का
निवास था। वे यद्यपि मनुष्य थे किन्तु वे विद्यानों की सिद्धि किया करते थे, (जिसे आधनिक राक्षस वंश मोर भाषा में कह सकते हैं कि वे वैज्ञानिक प्रयोग किया करते थे । इसलिए उनके पास विमान थे बानर वंश तथा प्रभुत शस्त्रास्त्र थे।) इन विद्याधरों में अनेक जातियाँ थी-राक्षस, वानर,ऋक्ष, गन्धर्व,
किन्नर प्रादि । इन्हें जातीय अभिमान था और ये भूमि पर रहने वालों को भूमिगोचरी कहते थे तथा उन्हें हीनदष्टि से देखते थे। यहां तक कि भूमिगोचरियों को अपना कन्या देना अपना अपमान समझते थे। यद्यपि भूमिगोचरी राजानों ने अपने बाहुबल के द्वारा विद्याधरों की कन्यामों के साथ विवाह किया था, किन्तु फिर भी विद्याधरों में जातीय अभिमान बहत काल तक बना रहा ।
द्वितीय तीर्थकर भगवान अजितनाथ के समय मेघवाहन नामक राजा को प्रसन्न होकर राक्षस जाति के देवों के इन्द्र भीम और सुभीम ने समुद्र के मध्य में बसे हए राक्षस द्वीप की राजधानी लंका तथा पाताल लंका का
राज्य दिया था तथा अदभुत कान्ति बाला रत्नहार दिया था। फलतः राजा मेघवाहन अपने राक्षस वंश परिवार सहित राक्षस द्वीप में जा बसा और वहां प्रानन्दपूर्वक राज्य करने लगा।
उसके वंश में आगे चलकर एक महाप्रतापी राजा हुआ, जिसका नाम राक्षस था। उसके नाम पर उस वंश का नाम राक्षस वंश पड़ गया ।
विजया की दक्षिण श्रेणी के मेधपुर नगर के अधिपति श्रीकण्ठ को लंका नरेश कीतिशुभ ने, जो श्रीकंठ काहनोई था, शत्रनों के उत्पात से बचाने के लिए बानर द्वीप दिया था। श्रीकंठ ने वहां जाकर नगर बसाया और
सुखपूर्वक रहने लगा। इस द्वीप में वानर बहुत थे। श्रीकण्ठ तथा उसके नगरवासी उन रामर वंश बानरों से अपना खूब मनोरंजन किया करते थे तथा उनको पालते भी थे। उसी के वंश में
मागे चलकर अमरप्रभ राजा हुमा । उसने अपनी ध्वजा, मुकुट, छत्र, तोरण और द्वारों पर बानरों के चिन्ह खुदवा दिये। तबसे सारे नगरवासी बन्दरों को प्रादर की दृष्टि से देखने लगे। इसीलिए उनके वंश का नाम बानर वंश पड़ गया। राक्षस और बानर वंशियों में परस्पर बड़ा प्रमभाव था। एक बार रथनपुर के राजा प्रशनिवेग से बानर
नरेश और राक्षस नरेश सुकेश का युद्ध हुमा । उस युद्ध में दोनों वंश के राजा हार गये पौर राक्षस कुल में रावण युद्ध छोड़कर भागे तथा पाताल लंका में जाकर रहने लगे। मशनिवेग ने लंका की गद्दी पर का जन्म निघति नामक राजा को बैठा दिया । कुछ काल पश्चात् बानर वंशो किष्कन्ध ने समुद्र के
किनारे किटकन्ध नामक नगर बसाया और वहीं रहने लगा। राक्षस वंशी सुकेश के तीन पुत्र हुए-माली, सुमाली और माल्यवान। जब माली को अपने माता-पिता