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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
एक तो अपराजिता, जिसका दूसरा नाम कौवाल्या था। यह दर्भपुर के राजा सुकोशन धौर उनकी रानी अमृतप्रभा की पुत्री थी। दूसरी सुमित्रा, जिसके माता-पिता पद्मपत्र नगर के राजा तिलकबन्धु और रानी मित्रा थी। तीसरी राजकुमारी का नाम सुप्रभा या जो रतनपुर के राजा की पुत्री थी। इसी काल में राजा जनक मिथिलापुर में शासन कर रहे थे। वे हरिवंधी थे। उनके पूर्वजों में विजय, दक्ष, इलावर्धन, श्रीवर्धन, श्रीवृक्ष, संजयन्त, कुणिम, महारय, पुलोमा आदि अनेक प्रतापी राजा हो चुके थे ।
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एक बार राजा दशरथ राजदरबार में बैठे हुए थे तभी प्राकाशमार्ग से नारद घाये। राजा ने उनकी यथोचित अभ्यर्थना की और कुशल-मंगल पूछने के बाद उनके आने का कारण पूछा। तब नारद ने बताया कि मैं लंका गया हुआ था। वहाँ का राजा महाबलवान राक्षसवंशी रावण है। उसकी सभा में एक बड़ा दुःखदायक समा चार सुना । किसी ज्योतिषी ने रावण से यह कहा कि सीता के निमित्त से दशरथ के पुत्रों द्वारा तुम्हारी मृत्यु होगी। यह सुनकर विभीषण ने रावण से कहा कि दशरथ धौर जनक के जबतक सन्तान होगी, उससे पहले ही मैं उन दोनों राजाओं को मार डालूंगा । उसने अपने चर छद्मवेश में तुम्हें देखने भेजे थे। वे तुम्हें देख कर वापिस चले गये हैं और तुम्हारे बारे में सारे समाचार विभीषण को दिये हैं। अतः विभीषण तुम दोनों को मारने के लिए शीघ्र ही आने बाला है। धतः तुम्हें अपनी रक्षा का समुचित प्रबन्ध कर लेना चाहिए।
नारद से यह समाचार सुनकर दशरथ अत्यन्त भयभीत हो गये। नारद वहां से राजा जनक के पास गये और उन्हें भी ये समाचार सुनाये। दोनों ने अपने मन्त्रियों से परामर्श किया। मंत्रियों ने कहा कि जब तक यह विघ्न टल नहीं आता, आप प्रच्छन्न रूप में किसी दूसरे नगर में रहें। यह सुनकर दोनों राजा देशान्तर को चले गये और उनके स्थान पर दो नकली शरीर बनाये गये। उनमें लाख श्रमिक भरकर सिंहासन पर बैठा दिया। ने पाकर उन नकली राजाधों को मार डाला। विभीषण प्रसन्न होकर लंका वापिस चला गया।
उपर दशरथ जनक के साथ अनेक देशों में भ्रमण करते हुए कौतुकमंगल नगर मे पहुंचे। उस नगर का राजा शुभमति था। उसकी रानी का नाम पृथ्वीमही था। उसके दो पुत्र केकय और द्रोण थे और एक रूपगुणवती कन्या थी, जिसका नाम केकामती ( कैकेयी) था। वह कन्या संगीत, शस्त्र और शास्त्र में प्रत्यन्त निपुण थी। राजा ने उसके विवाह के लिए स्वयंवर रचा, जिसमें अनेक राजा भाग लेने पाये। वहाँ दशरथ और जनक भी बैठ गये। राजकुमारी कैकेयी वरमाला लेकर स्वयंवर मण्डप में धाई । द्वारपाली सब राजानों का परिचय देती गई। जब कैकेई दशरथ के सम्मुख पहुंची तो उसने दशरथ के गले में वरमाला डाल दी।
नाव की उत्पत्ति
मारs, जो बड़ा कलहप्रिय कहलाता है, उसका जन्म किन विचित्र परिस्थितियों में हुआ, यह जानना बड़ा रुचिकर है। ब्रह्मरुचि नाम का एक ब्राह्मण या । उसकी पत्नी कुर्मी थी। दोनों सन्यासी थे। जंगल में एक मठ में रहते थे। एक बार
कुर्सी को गर्भ रह गया। वहाँ एक बार एक दिगम्बर मुनि पधारे। दोनों सन्यासी आकर बैठ गये। वे मुनि ने पूछा- यह भी स्वी कौन है ? ब्राह्मण बोला यह मेरी पत्नी है। मुनि वह भाश्चर्य से बोले- तू तो सन्यासी है तुझे स्त्री रखना उचित नहीं है।
ब्राह्मण मुनिराज के उपदेश से मुनि वन गया। ब्राह्मणी को बड़ा दुःस हुआ कि इस अवस्था में वह दीक्षा नहीं ले सकती किन्तु जब बालक उत्पन्न हुआ और १६ दिन का हो गया तो ब्राह्मी उसे एक सुरक्षित स्थान पर रखकर चली गई और तपस्विनी हो गई। बालक चुपचाप पड़ा था। संयोग की बात कि आकाश में जाते हुए नामक एक देव ने बालक को देखा और दयावश उसे उठाकर ले गया। उसका लालन-पालन किया और शास्त्रों का अध्ययन कराया ।
जब बालक यौवन सम्पन्न हुआ तो उसने आकाशगामिनी विद्या सिद्ध कर भी मुल्लक के व्रत भी ले लिए। साथ ही जटायें रखली, मुकुट भी पहनने लगा। इस तरह वह न गृहस्थ ही रहा, न मुनि ही वह हास- विलास का प्रेमी था, बरयन्त वाचास था, कलह देखने का इच्छुक और संगीत का शौकीन था यह बह्मचारी था, राजघरानों में उसका बड़ा सम्मान था देवों ने उसका पालन किया था और देवों के साथ उसकी क्रीड़ायें थीं। इसलिए वह देवर्षि कहलाता था ।