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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
और विजय दोनों में परस्पर में घड़ा प्रेम था। दोनों ही प्रत्यन्त लाड़प्यार में पले थे इसलिये वे दोनों दुराचारी हो गये। उस नगर के सेठ कुबेर ने अपनी कुवेरखत्ता पुत्री को वैश्रवण सेठ की गौतमा स्त्री से उत्पन्न कुमार श्रीदत्त के लिये देने का संकल्प किया। तभी किसी ने जाकर राजकुमार चन्द्रचूल से कुवेरदत्ता के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा की । सुनते ही चन्द्र अपने साथी विजय को लेकर सेठ कुबेर के घर जा धमका और कुवेरदत्ता का बलात् अपहरण करने का प्रयत्न करने लगा । यह अनर्थ देखकर वैश्य लोग रोते चिल्लाते हुए महाराज के पास पहुँचे और उनसे जाकर फरियाद की। राजा को अपने पुत्र के इस अनाचार को देखकर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने नगर रक्षक को बुलाकर उसे राजकुमार का वध करने की प्राज्ञा दी । नगर-रक्षक कुछ सैनिकों को लेकर राजकुमार को बन्दी बनाने गया और बन्दी दशा में उसे महाराज के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया। उसे देखते ही राजा ने राजकुमार को शूली का दण्ड दे दिया। नगर रक्षक राजकुमार को शूली पर चढ़ाने के लिये ले चला। तभी प्रधान मन्त्री प्रमुख नागरिकों को आगे करके महाराज के निकट ग्राया और हाथ जोड़कर निवेदन करने लगा - 'देव ! राजकुमार को कार्य ani का विवेक नहीं है। हम लोगों का प्रमाद रहा कि बाल्यकाल से इसकी ओर ध्यान नहीं दिया । यह आपका एकमात्र वंशधर और राज्य का भावी उत्तराधिकारी हैं । दण्ड का उद्देश्य तो व्यक्ति का सुधार है । यदि राज्य के इस एकमात्र कुमार को आपने शूली देदी तो उसका सुधार तो होगा नहीं, श्रापका वंश भी निर्मूल हो जायेगा । अतः आप इसे सुधारने का एक अवसर अवश्य दीजिये। किन्तु राजा ने उनकी एक नहीं सुनी। वे अपने निर्णय पर अटल रहे। तब प्रधान मन्त्री ने कहा - 'देव की जैसी माशा । किन्तु इसको में स्वयं दण्ड दूंगा । राजा ने इस बात की स्वीकृति दे दो ।
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पूर्व भव में
निदान वन्ध
धानामात्य अपने पुत्र विजय और राजकुमार चन्द्रचूल को लेकर पर्वत पर पहुंचा और राजकुमार को यहाँ पर्वत पर लाने का उद्देश्य भी बता दिया । राजकुमार बड़ी निर्भयता से मृत्यु दण्ड पाने के लिये तैयार हो गया। तभी मन्त्री को पता चला कि यहाँ निकट ही महाबल नामक गणधर विराजमान हैं। मंत्री दोनों को लेकर मुनिराज के समीप पहुँचा; उनकी बन्दना की और उन दोनों का भविष्य पूछा। मुनिराज बोले- ये दोनों ही तीसरे भव में इसी भरत क्षेत्र में नारायण और बलभद्र होंगे।' सुनकर मंत्रो बड़ा प्रसन्न हुआ। उन दोनों कुमारों ने भी मुनिराज का उपदेश सुना तो उन्हें अपने कृत्यों पर भारी ग्लानि हुई और उन्होंने मुनि दीक्षा ले लो ।
मंत्री ने महाराज के पास लौटकर पूरा वृत्तान्त सुना दिया और अन्त में निवेदन किया- 'महाराज ! वे दोनों सुधार के मार्ग पर लग गये हैं। उनके लिये दण्ड का उद्देश्य पूरा हो गया । राजा ने सब बात सुनकर मंत्री की बड़ी प्रशंसा की । किन्तु इस घटना से उसे भी राज्य से विरक्ति हो गई। वह अपने कुल के किसी योग्य पुत्र को राज्य सौंप कर इन्हीं गणधर महाराज के निकट पहुँचा । वहाँ दोनों नवदीक्षित कुमारों को मुनि अवस्था में देखकर उसने दोनों से क्षमा-याचना की। वे दोनों बोले- आपने हमारा बडा हित किया। यह संयम श्रापकी बदौलत ही हम लोगों ने ग्रहण किया है ।
राजा ने भी अनेक व्यक्तियों के साथ सम्पूर्ण प्रारम्भ - परिग्रह का त्याग कर संयम अंगीकार कर लिया और कठोर ग्राभ्यन्तर बाह्य तपों का प्राचरण कर कुछ काल में ही घातिया कर्मों का नाश कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन गये और अन्त में शेष अघातिया कर्मो का सब कर वे सिद्धालय में जा विराजे ।
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एक समय दोनों भुमिराब खड़गपुर नगर के बाहर श्रातापन योग धारण कर ध्यानारूढ़ थे । उस नगर के राजा सोमप्रभ की सुदर्शना बौर सीता नाम की दो रानियां थीं जिनके क्रमशः सुप्रभ और पुरुषोत्तम नामक पुत्र थे । सुप्रभ बलभद्र थे और पुरुषोसम नारायण थे। जिस समय वे दोनों मुनि ध्यान लगाये हुए खड़े थे, उस समय पुरुषोत्तम नारायण मधुसूदन प्रतिनारायण का वध करके बड़े वैभव के साथ नगर में प्रवेश कर रहा था । उसकी विभूति को देखकर चन्द्रचूल मुनि ने अज्ञानवश वैसी ही विभूति का निदान कर लिया। अन्त में चारों प्रकार के माहार का त्याग कर दोनों ने चारों आरावनाओं का सेवन क्रिया । वे मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में विजय और मणिचूल नामक देव हुए।
ये ही दोनों देव महाराज दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण हुए जोकि लोक विश्रुत बलभद्र मोर नारायण थे।