________________
नन्दिर्मित्र बलभद, दत नारायण और बलीन्द्र प्रतिनारायण हुमा । किन्तु उन्होंने समझा कि पिता ने यह कार्य मंत्री के द्वारा बरगलाने के कारण किया है, इसलिए वे मंत्री पर कुपित हुए और अपना सारा कोष उसके ऊपर उतारा । तिरस्कृत होकर राज्य में रहना उन्होंने उचित नहीं समझा, प्रतः उन्होंने शिवगुप्त नामक मुनिराज के पास जाकर मुनि-दोक्षा ले लो। किन्तु छोटे भाई के मन से मंत्री के प्रति द्वेष भाव नहीं निकल सका । उसने मंत्री से बदला लेने का निदान बन्ध किया।
दोनों भाई दुर्धर. तपश्चरण करने लगे। आयु के अन्त में समाधिमरण किया और सौधर्म स्वर्ग में देव हुए।
वाराणसी के राजा इक्ष्वाकुवंशो अग्निशिख थे। वे बडे धामिक विचारों के थे। उनकी दो रानियां थीं. अपराजिता पौर केशवती। ये दोनों देव उन रानियों से कमश: नन्दिमित्र और दत्त नानक पुरए। नन्दिभित्र बड़ा
था और दस छोटा । यद्यपि के दोनों सौतेली माता के पुत्र थे किन्तु दोनों में प्रगाढ़ स्नेह था। बालभा, नारायण उनकी प्रायुबत्तीस हजार वर्ष की थी। उनका शरीर बाईस धनुष ऊंचा था। नन्दिमित्र पौर प्रतिनारायण खेत कुन्द के समान वेत वर्ण तथा दस इन्द्रनील मणि के समान नील वर्ण था। बचपन
से ही दोनों बड़े तेजस्वी और साहसी थे । नन्दिमित्र स्वभाव से शान्त पौर दत्त उक्त प्रकृति का था।
उपर्युक्त मंत्री संसार भ्रमण करता हुमा विजयाई पर्वत के मन्दरपुर नगर के विधाघरों का स्वामी वलीन्द्र हना । बलोन्द्र नाम से ही बलीन्द्र नहीं था, बास्तव में ही वह बलोन्द्र था। सम्पूर्ण राजा उससे भयभीत रहते थे। एक दिन उसने अपना दूत दोनों भाइयों के पास भेजा और कहा-महाराज बलान्द्र ने प्रादेश दिया है कि तुम्हारे पास जो भद्रक्षीर गन्धगज है, उसे हमारे पास भेज दो। दोनों भाइयों ने दूत की बात सुनकर परिहास में कहामगर बलीन्द्र अपनी पुत्रियों का विवाह हमारे साथ कर दे तो हम उन्ह पपना गजराज दे देंगे। बिना ऐसा किये तो हम नहीं दे सकेंगे।' यह बात दूत ने जाकर जब बलीन्द्र से कहो तो वह बड़ा कुपित हमा। वह तो वास्तव में दोनों भाइयों के बढ़ते हुए प्रभाव से सशंकित था, इसलिए उन्हें मारने का काईबहाना दंढ़ रहा था। अपने आदेश का उल्लंघन होता देखकर वह सेना लेकर लड़ने के लिए तैयार हो गया।
तभी दक्षिण श्रेणी के सुरकान्तार नगर के स्वामी केशरीविक्रम नामक विचार राजा ने दोनों कूमारों को सिंहवाहिनी और गरमपाहिनो नामक दो विद्यायें सम्मेदशिखर पर बुलाकर प्रदान की। यह राजा दत्त का माता केशवती का बड़ा भाई था। इस राजा ने दोनों कुमारों को सब प्रकार को सहायता देने का भी वचन दिया ।
दोनों मोर की सेनायें सामने-सामने प्राकर डर गई। दोनों सेनामों में लोमहर्षक युद्ध हुमा। बलीन्द्र का पुत्र शतवलि नन्दिमित्र से जा भिड़ा। किन्तु नन्दिमित्र ने आनन-फानन में शतबलि का वध कर दिया । पुत्र को मृत्यु देखकर बलीन्द्र नेत्रों से प्रग्नि ज्वाला बरसाता नदिमित्र की भोर लपका। बलीन्द्र को बढ़ते देखकर दत्त पागे मा गया। दोनों का उस समय जो भयानक युद्ध हुमा, वह प्रभुत था। बलीन्द्र को अपने बल का बड़ा अभिमान था। पायु में भी वह दत्त से बड़ा था। किन्तु दस के समक्ष उसकी एक नहीं चल पा रही थी। तब भयकर क्रोध में भरकर बलीन्द्र ने प्रमोघ चक्र दत्त के ऊपर फेंका। देवाधिष्ठित चक्र प्रदक्षिणा देकर दत्त की दाहिनी भुजा पर पाकर ठहर गया । तब दत्त ने यही चक्र बलीन्द्र के ऊपर चला दिया। मृत्यु को माते हुए देखकर बलीन्द्र भय के मारे घबड़ा गया । उसने प्रतिकार भी करना चाहा किन्तु धक्के मागे उसकी एक नहीं चली पौर उसका शिर अलग जा पड़ा। '
प्रतिनारायण बलीन्द्र को मारकर बलभद्र नन्दिमित्र पौर नारायण दत्त ने शत्रु सेना में प्रभय घोषणा कर दी। फिर बलभद्र, नारायण पुण्म से प्राप्त पक्र मादि की सहायता से भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त कर अर्धचक्री बने। चिरकाल तक राज्य सुख भोगफर एक दिन अचानक नारायण की मृत्यु हो गई। भाई के शोक में नन्दिमित्र को वैराग्य हो गया । वे मुनि बनकर तप करने लगे। पन्त में केवली होकर उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।