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एकविंश परिच्छेद
भगवान मुनिसुव्रतनाथ अंगदेश के चम्पापुर नगर में हरिवर्मा नामक एक राजा राज्य करते थे। एक दिन नगर के बाह्य उद्यान में अनन्तदीयं नामक नियन्य मुनिराज पधारे। उनका प्रागमन सुनकर राजा अपने परिजनों पुरजनों के साथ पूजा को
सामग्री लेकर दर्शनों के लिए गये। वहां जाकर राजा ने मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा दी; पूर्व भव सीन बार वन्दना को प्रोर उनकी पूजा की। फिर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक मुनिराज से धर्म
के स्वरूप की जिज्ञासा की। मुनिराज ने विस्तारपूर्वक धर्म का स्वरूप समझाते हुए कल्याण का मार्ग बताया । उपदेश सुनकर महाराज हरिवर्मा को प्रात्म-कल्याण की अन्तःप्रेरणा हुई। उन्होंने बड़े पुत्र को राज्य सौंप कर बाह्य पौर माभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करके जैनेन्द्री दीक्षा ले ली। उन्होंने गुरु के चरणों में रहकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह कारण भावनामों का चिन्तन कर तीर्थकर नामकर्म का धन्ध कर लिया। इस प्रकार चिरकाल तक नाना प्रकार के तप करके प्रात्म-विशुद्धि करते हुए अन्त में समाधिमरण करके प्राणत स्वर्ग के इन्द्र का पद प्राप्त किया।
___ जब उस इन्द्र की यायु छह माह शेष रह गई, तब राजगृह नगर के स्वामी हरिवंश शिरोमणि काश्यपगोत्री महाराज समित्र के घर में छह माह तक रलवर्षा हुई। जब इन्द्र की प्रायु पूर्ण होने वाली थी, तब महाराज समित्र
की महारानी सोमा को श्रावण कृष्णा द्वितीया को श्रवण नक्षत्र में रात्रि के प्रन्तिम प्रहर में गर्भ कल्याणक तीर्थकर प्रभु के गर्भावतरण के सूचक सोलह स्वप्न दिखाई दिये। स्वप्नों के अनन्तर उन्हें
एक तेजस्वी गजराज मुख में प्रवेश करता हुआ दिखाई दिया। उस इन्द्र का जीव तभी महारानी सोमा के गर्भ में प्रवतरित हुआ।
प्रातः काल होने पर स्नानादि से निवृत्त होकर महारानी हर्षित होती हुई महाराज के पास पहुंची और उन्हें रात्रि में देखे हुए स्वप्न कह सुनाये तथा उनसे इन स्वप्नों का फल पूछा । महाराज ने मवधिज्ञान से फल जान
वि को बताया--देवी! तुम्हारे तीन जगत के स्वामी तीर्थकर प्रभु जन्म लेंगे। सुनकर महारानी को पार हर्ष हमा। तभी देवों ने पाकर माता का अभिषेक किया और भगवान का गर्भकल्याणक मनाया। सौधर्मेन्द्र देवियों को माता की सेवा में नियुक्त करके देवों के साथ वापिस चला गया। यथासमय तीर्थकर प्रभु का जन्म हुमा। चारों जाति के इन्द्र और देष, इन्द्राणी और वेषियों पाई और
भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर देवों ने उनका पभिषेक किया। सौधर्मेन्द्र ने उस समय जन्म कल्याणक बालक का माम मुनिसुव्रतनाथ रक्खा । उनका जन्म चिम्ह कछुमा था।
भगवान की मायु तीस हजार वर्ष पी। शरीर की ऊँचाई बीस धनुष की थी। उनके शरीर का वर्ग मयूर के कण्ठ के समान नील पा । वे एक हजार पाठ लक्षणों पर तीन मानों से युक्तये।
जब कुमार काल के साढ़े सात हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब पिता ने उनका विवाह कर दिया तथा राज्याभिषेक करके राज्य-भार सौंप दिया। उन्होंने सुखपूर्वक सादे सात हजार वर्ष तक राज्य किया। एक दिन